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वैतालिय अध्ययन अनुवाद - यथार्थ दृष्टा, विवेक सम्पन्न पुरुष यह चिन्तन करे कि शैत्य, उष्णता, आदि परीषहों से केवल मैं ही उत्पीड़ित नहीं होता हूँ । कष्ट नहीं पाता हूँ किन्तु जगत में और भी प्राणी हैं जो इन परीषहों से दुःखित होते हैं । अतः मुझे इनको क्रोध, असहिष्णुता आदि से रहित होकर सहना चाहिये।
टीका - पुनरप्युदेशान्तरयाह-परीषहोपसर्गा एतद्भावनापरेण सोढव्याः नाहमेवैकस्तावदिह शीतोष्णादिदुः ख विशेषैलुप्पे पीड्ये अपित्वन्येऽपि प्राणिनः तथाविधास्तिर्य्यङ्मनुष्याः अस्मिंल्लोके लुप्यन्ते अतिदुःसहै ?ः खैः परिताप्यन्ते, तेषाञ्च सम्यग्विवेकाभावान्न निर्जराख्याफलमस्ति, यतः "क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषतः, सोढ़ाः दुःसहशीतताप पवन क्लेशाः न तप्तं तपः । ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्राणै न तत्त्वं परं, तत्तत्कर्म कृतं सुखार्थिभिरहो तैस्तैः फलैर्वञ्चिताः" ? तदेवं क्लेशादि सहनं सद्विवेकिनां संयमाभ्युपगमे सति गुणायैवेति, तथाहि-"कार्यं क्षुत्प्रभवं कदन्मशनं शीतोष्णयोः पात्रता, पारुष्यञ्च शिरोरूहेषु शयनं मह्यास्तले केवले । एतान्येव गृहे वहन्त्यवनतिं तान्युन्नतिं संयमे, दोषाश्चाऽपि गुणाः भवन्ति हि नृणां, योग्ये पदे योजिता:? एवं सहितोज्ञानादिभिः स्वहिोत वा आत्महितः सन् पश्येत् कुशाग्रीयया बुद्धया पालोचयेदनन्तरोदितं, तथा निहन्यत इति निहः न निहोऽनिहः क्रोधादिभिरपीडितः सन् स महासत्त्वः परीषहै: स्पष्टोऽपि तान् अधिसहेत मनः पीडां न विदध्यादिति, यदिवा अनिह इति तप:संयमे परीषहसहने चानिगूहितबलवीर्यः शेषः पूर्ववदिति ॥१३॥
टीकार्थ – विवेकी पुरुष यह चिन्तन कर परीषहों और उपसर्गों को सहन करे कि ठंडक तथा गर्मी आदि के द्वारा मैं ही अकेला पीडित नहीं होता किंतु संसार में और भी अनेक पशु पक्षी मनुष्य आदि प्राणी है जो इनसे पीड़ित होते हैं । वे प्राणी सम्यक्ज्ञानरहित हैं । इसलिये कष्ट सहते हुए भी वे निर्जरा-कर्मों के निर्जरण मूलक फल को नहीं पा सकते । अतएव किसी ज्ञानी की यह उक्ति है कि एक व्यक्ति सोचता है कि मैंने सर्दी गर्मी आदि के दुःखों को तो बर्दास्त किया किन्तु शांत-शांति युक्त भावना से नहीं किन्तु आसक्तिदुर्बलतावश-मजबूरी से सहन किया । मैंने गृहस्थ के सुख को छोड़ा तो सही किन्तु संतोष के कारण नहीं किन्तु इच्छाओं की अपूर्ति के कारण । मैंने सर्दी गर्मी और हवा के असह्य दुःख झेले परन्तु तप की भावना से नहीं । मैंने अहर्निश धर्म का चिन्तन किया किंतु द्वन्द्व रहित होकर-शांत चित्त होकर परम तत्त्व का-परमात्म स्वरूप का चिन्तन नहीं किया । मैंने सुख पाने के लक्ष्य से वे सभी कर्म किये जो तपस्वी मुनिगण करते हैं किन्तु मुझे उनका फल नहीं मिला ।
संयम का पालन करने वाले उत्तम चिन्तनशील पुरुष जो कष्ट सहते हैं वे उनके गुण के लिये कल्याण के लिये या हित के लिये होता है अतएव किसी विद्वान कवि ने कहा है-भोजन न मिलने से शरीर में जो कृशतादुबलापन आता है । तुच्छ अन्न के भोजन से ठंड तथा गर्मी के दुःख को सहने से जो कष्ट होता है तेल न लगाने से बालों में जो रूक्षता आती है तथा बिस्तर के बिना शुष्क भूमि पर सोने से असुविधा होती है-ये बातें एक गृहस्थ के लिये अवन्नति-पतन या दु:ख के चिह्न माने जाते हैं जब कि वे ही एक संयमी मुनि के लिये उन्नतिप्रद समझे जाते हैं । इससे यह साबित होता है कि योग्य-समुचित स्थान पर स्थापित दोष भी गुण बन जाते हैं । अतः ज्ञान आदि संयुक्त आत्मकल्याण परायण मुनि उपर्युक्त तथ्यों पर चिन्तन करता हुआ क्रोध आदि को नियन्त्रित करे । अत्यन्त धैर्यशील या सहिष्णु बनकर ठंड गर्मी आदि परीसहों को बर्दास्त करे । शैत्य, उष्णता आदि द्वारा बाधाएं पैदा होने पर मन में किसी भी प्रकार का शोक न करे । ऐसा मुनि तप संयम के अनुसरण में तथा परीषहों को सहने से अपने आत्मबल का गोपन न करे । उसे अव्यक्त न रखे-प्रकट करे ।
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