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श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रम् । लिये हम अत्यन्त दुःखी हैं । तुम्हारे अतिरिक्त हमारा कोई पोषक-पालन पोषण करने वाला नहीं है । तुम इस बात को भली भांति समझते हो । तुम पश्यक-सूक्ष्मदर्शी-स्थितियों को बारीकी से समझने वाले तथा तुम सश्रुतिकसुशिक्षित-विद्वान हो । अतः हमारा पोषण करो-प्रति जागरण-देखरेख करो नहीं तो जरा सोचो तुमने दीक्षित होकर अपने इस लोक को नष्ट कर दिया है और हमारा प्रतिपालन करना छोड़कर तुम अपना परलोक भी बिगाड़ रहे हो । अपने दुःखित परिवार के लालन पालन से पुण्य प्राप्त होता है । इसलिये पुत्र को सम्बोधित कर शास्त्र में कहा है।
हे पुत्र ! गृहस्थ अपने पुत्र और स्त्री का पालन करने हेतु क्लेश से दग्ध है-अत्यन्त दुःख सहकर उनका पालन पोषण करते हैं । यह गृहस्थों की गति या जीवन पद्धति है । तुम भी उसी पर चलो ।।
अन्ने अन्नेहिं मुच्छिया मोहं जंति नरा असंवुडा । विसमं विसमेहिं गाहिया ते पावेहिं पुणोपगब्भिया ॥२०॥ छाया - अन्येऽन्यैर्मूर्छिताः मोहं यान्ति नरा असंवृताः ।
विषमं विषमैाहिताः, ते पापैः पुनः प्रगल्भिताः ॥ अनुवाद - कई ऐसे असंवृत-संवर रहित, संयम से दुर्बल मुनि होते हैं जो अपने रिश्तेदारों के समझाने से पारिवारिक जनों में मूर्च्छित-मोहासक्त हो जाते हैं । संयम को छोड़ देते हैं । यों असंयत पुरुषों द्वारा उसे असंयम ग्रहण करा दिया जाता है । असंयममय संसार में घसीट लिया जाता है । वे धृष्टतापूर्ण पाप कर्म करने में लग जाते हैं ।।
टीका - एवं तैरुपसर्गिता: केचन कातराः कदाचिदेतत्कुर्य्यरित्याह-'अन्ने' इत्यादि, अन्ये केचनाल्पसत्त्वाः अन्यैः मातापित्रादिभिः मूर्च्छिता अध्युपपन्नाः सम्यग्दर्शनादि व्यतिरेकेण सकलमपि शरीरादिकमन्यदित्यन्य ग्रहणं ते एवम्भूता असंवृताः नराः मोहं यान्ति सदनुष्ठाने मुह्यन्ति, तथा संसारगमनैकहेतुभूतत्वाद् विषम असंयम स्तं विषयैरसंयते रून्मार्गप्रवृत्तत्वेनाऽपायाभीरूभी, रागद्वेषै वा अनादिभवाभ्यस्ततया दुश्छेद्यत्वेन विषमैः ग्राहिताः असंयमं प्रति वर्तिता स्ते चैवम्भूताः पापै कर्मभिः पुनरपि प्रवृत्ताः प्रगल्भिताः धृष्टतां गताः, पापकं कर्मकुर्वन्तोऽपि न लजन्त इति ॥२०॥
टीकार्थ - कोई ऐसे कायर होते हैं जो माता पिता आदि रिश्तेदारों द्वारा अनुकूल उपसर्ग उपस्थित किये जाने पर, जैसा कर बैठते हैं-आगमकार उसका निरूपण करते हुए बतलाते हैं -
कई अल्प पराक्रमी-मंद आत्मबलयुक्त पुरुष माता पिता आदि पारिवारिक जनों में-सांसारिक पदार्थों में आसक्त होकर मोहमूढ़ हो जाते हैं । सम्यक्दर्शन, सद्अनुष्ठान आदि से विचलित हो जाते हैं । वास्तव में सम्यक्दर्शन आदि के अतिरिक्त इस जगत के सभी पदार्थ, यहां तक कि अपनी काया भी अपनी नहीं है, अन्य हैं । इसलिये यहां आत्मा केअतिरिक्त सभी को अन्य कहा गया है । जीव के संसार में अनेक आवागमन के चक्र में पड़ने का मुख्य कारण असंयम है । अतएव यहां असंयम को विषम कहा गया है । जो पुरुष असत्य मार्ग पर चलते हैं, अपने विनाश का जिन्हें डर नहीं है, ऐसे संयम रहित जनों द्वारा असंयम में लाए हुए, वापस गृहस्थ में धकेले हुए पुरुष धृष्टतापूर्वक पाप करने में लग जाते हैं । राग द्वेष का सांसारिक जीवों में अनादिकाल
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