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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् छाया - यदि कारूणिकानि कुर्युः यदि रुदन्ति च पुत्रकारणात् ।
द्रव्यं भिक्षु समुत्थितं न लभन्ते न संस्थापयितुम् ॥ अनुवाद - साधु के माता पिता आदि रिश्तेदार उसके समीप आकर यदि ऐसा वचन बोले जो करुणा पैदा करते हों अथवा ऐसे कार्य करे जिससे मन में दया भी आ जाय अथवा पुत्र के लिये रूदन करने लगे तो भी वे संयम में तत्पर साधु को भ्रष्ट नहीं कर सकते । पुनः गृहस्थ जीवन में नहीं ला सकते ।
टीका - किञ्च यद्यपि ते माता पिता पितृ पुत्र कलत्रादयः तदन्तिके समेत्य करुणाप्रधानानि विलापप्रायाणि वचांस्यनुष्ठनानि वा कुर्युः, तथाहि
"णाह पिय कन्त सामिय, अइवल्लह दुल्लहोऽसि भुवणंमि । तुह विरहमिन य निक्किव । सुण्णं सव्वंवि पडिहाइ ?" "सेणी गामो गोट्ठी गणो व तं जत्थ होसि संहिणहितो ।
दिहई सिरिए सुपुरिस ! । किं पुण निययं घरदारं" ॥२॥ तथा यदि "रोयंति य" त्ति, रुदन्ति पुत्रकारणं सुतनिमित्तं कुलवर्धनमेकं सुत मुत्पाद्य पुनरेवं कर्तुमर्हसीति। एवं रुदन्तो यदि भणन्ति तं भिक्षु रागद्वेषरहितत्वान्मुक्तिगमन योग्य त्वाद्वा द्रव्यभूतं सम्यक् संयमोत्थानेनोत्थितं तथापि साधुं न लप्स्यन्ते न शक्नुवन्ति प्रव्रज्यातो भ्रंशयितुं भावाच्यावयितुं नाऽपि संस्थापयितुं गृहस्थभावेन द्रव्यलिङ्गाच्यावयितुमिति ॥१७॥
टीकार्थ - मुनि के माता-पिता, पुत्र, स्त्री आदि रिश्तेदार उसके समीप आकर यदि ऐसा विलापपूर्ण वचन बोले जो करुणागर्भित हों या रोने लगे या ऐसे कार्य करे जिससे मन में दया पैदा हो जैसे साधु की संसार पक्षीया पत्नी उसे कहने लगे कि-हे नाथ ! हे प्रिय ! हे कान्त ! हे स्वामिन् ! हे अति वल्लभ !अत्यन्त प्यारे ! तुम घर में दुर्लभ हो गये हो-हमें प्राप्त नहीं हो । हे निष्कृत ! कृपाहीन-निर्दयी ! तुम्हारे विरह में सब कुछ सूना लगता है । हे सत्पुरुष ! तुम जिस श्रेणी, ग्राम या गोष्ठी में जहां भी सन्निहित होते होंउपस्थित होते हों, वे सब तुम्हारी श्री-शोभा से दीप्त हो उठते हों-फिर तुम्हारा घर तुमसे दीप्त-प्रकाशित हो, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? पुत्र के लिए रोती हुई वह कहे कि अपने कुल के वर्धन-विस्तार या विकास के लिए एक पुत्र उत्पन्न कर पीछे तुम संयम का मार्ग स्वीकार करना । सारांश यह है कि इस प्रकार रोते हुए-कहते हुए पारिवारिक जन रागद्वेष रहित मोक्षगमन के संयम पालन में संलग्न उत्तम साधु को प्रव्रज्या से, ग्रहण किये हुए संयम साधना मूलक मार्ग से भ्रष्ट-पतित नहीं कर सकते । वे उसे पुनः गृहस्थ में लाकर द्रव्यलिंग से भी-साधु के बाह्य वेश में भी च्युत नहीं कर सकते ।
जइविय कामेहि लाविया, जहणेजाहि ण बंधिउं घरं ।
जइ जीविय नावकंखए णो लब्भंति ण संठवित्तए ॥१८॥ छाया - यद्यपि च कामै व्वयेयुः यदि नयेयुर्बध्वा गृहम् । यदि जीवितं नावाकांक्षेत नो लप्स्यन्ति न संस्थापयितुम् ॥
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