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वैतालय अध्ययनं
अभ्यास चलता आ रहा है । इसलिये इन्हें छिन्न भिन्न करना कठिन है । अतएव राग द्वेष को यहां विषम कहा गया है । राग द्वेष के कारण या उनसे प्रेरित होकर असंयत जीवन स्वीकार किये वे कायर पुरुष धृष्टता के साथ पाप कर्मों का आचरण करने लगते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि उन्हें पाप करते जरा भी शर्म नहीं आती ।
तम्हा दवि इक्ख पंडिए, पावाओ विरतेऽभिनिव्वुडे । पणए वीरं महाविहिं सिद्धिपहं णेआउयं धुवं ॥२१॥
छाया
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अनुवाद हे पुरुष ! तुम विवेकशील हो, पाप से विरत हो, अभिनिर्वृत-प्रशांत हो। अत: तुम सत्य का ईक्षण करो - देखो ! जो वीर पुरुष कर्मों को विदीर्ण करने में समर्थ होते है वे उस मार्ग पर चलते हैं जो निश्चय ही मोक्ष में पहुँचाता है जो सिद्धि-सिद्धत्त्व प्राप्त कराने का पथ है ।
तस्माद् द्रव्य ईक्षस्व पण्डितः पापाद्विरतोऽभिनिर्वृतः ।
प्रणताः वीराः महावीथीं सिद्धिपथं नेतारं ध्रुवम् ॥
टीका यत एवं ततः किं कर्त्तव्य मित्याह यतो मातापित्रादि मूर्च्छिताः पापेषु कर्मसु प्रगल्भा : भवन्ति तस्माद् द्रव्यभूतो भव्यः मुक्ति गमन योग्यः, रागद्वेषरहितो वा सन् ईक्षस्व तद्विपाकं पर्य्यालोचय । पंडित: सद्विवेकयुक्तः पापात् कर्मणोऽसदनुष्ठानरूपाद् विरतः निवृत्तः क्रोधादिपरित्यागाच्छान्तीभूत इत्यर्थः तथा प्रणताः प्रह्वीभूताः वीराः कर्मविदारण समर्था: महावीथिं महामार्गं तमेव विशिनष्टि-सिद्धिपथं ज्ञानादिमोक्षमार्ग, तथा मोक्षम्प्रति नेतारं प्रापकं ध्रुवमव्यभिचारिण मित्येतदवगम्य स एव मार्गोऽनुष्ठेयः नासदनुष्ठानप्रगल्भैर्भाव्यमिति ॥ २१ ॥
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टीकार्थ - माँ-बाप आदि पारिवारिक जनों में मोहासक्त होकर आत्मबल रहित पुरुष संयम से पतित हो जाते हैं । अतः वैसी स्थिति में क्या करना चाहिये आगमकार निरूपण करते हैं
छाया
माँ-बाप आदि से मोहासक्त पुरुष पापाचरण में धृष्ट-धीठ हो जाते हैं। इसलिये तुम मुक्तिपथ पर गमनशील रहते हुए राग द्वेष का विवर्जन करते हुए उस राग द्वेष के नतीजे समझो उत्तम विवेक - सद्ज्ञान से मुक्त तथा पापानुष्ठान से निवृत्त होकर क्रोधादि का त्याग करो, शांत बनो। कर्म को उच्छिन्न करने में जो पुरुष समर्थ होते हैं वे ही वास्तव में वीर होते हैं । महामार्ग का महान पथ को स्वायत्त करते हैं । उस महामार्ग की विशेषता बताते हुए आगमकार कहते हैं
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वह महा पथ ज्ञान का मोक्ष का रास्ता है । वह मोक्ष तक ले जाता है । वह ध्रुव - निश्चित है, यह अवगत कर उसी मार्ग का अनुष्ठान अनुसरण करना चाहिये । पापकर्म में धृष्ट-निर्लज्ज नहीं बनना चाहिये ।
वेयालियमग्गमागओ, मणवयसा कायेण संवुडो ।
चिच्चा वित्तं च णायओ, आरंभं च सुसंवुडे चरे ॥२२॥ त्तिबेमि ॥
वैदारकमार्गमागतो मनसा वचसा कायेन संवृतः ।
त्यक्त्वा वित्तञ्च ज्ञातीनारम्भञ्च सुसंवृतश्चरेत ॥ इति ब्रवीमि ॥
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