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वैतालिय अध्ययनं
अनुवाद - यदि मुनि के रिश्तेदार उसे काम भोगों का प्रलोभन दे, यदि वह घर जाने को तैयार न हो तो उसे बांधकर ले जाय, तो भी मुनि को असंयत जीवन की वांछा नहीं करनी चाहिये। ऐसा होने पर वे रिश्तेदार इसे अपने नियन्त्रण में नहीं ला सकते । गृहस्थ नहीं बना सकते ।
__ टीका - अपि च 'जइवि' इत्यादि, यद्यपि ते निजास्तं साधु संयमोत्थानेनोत्थितं कामैरिच्छामदनरूपै लवियन्ति, उप निमन्त्रयेयुरुपलोभयेयुरित्यर्थः, अनेनानुकूलोपसर्गग्रहणं, तथा यदि नयेयु र्बध्वा गृहं 'ण' मिति वाक्यालंकारे । एव मनुकूलप्रतिकूलोपसगैरभिद्रुतोऽपि साधुः यदि जीवितं नाभिकाङ्क्षद् यदि जीविताभिलाषी न भवेदसंयमजीवितं वा नाभिनन्देत् तपस्ते निजा स्तं साधु ‘णो' लब्भंति' त्ति, न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति आत्मसात्कर्तुं 'ण संठवित्तए' त्ति नाऽपि गृहस्थभावेन संस्थापयितुमलमिति ॥१८॥
टीकार्थ – एक मुनि जो संयम साधना में तत्पर है, यदि उसके रिश्तेदार उसके समीप आकर उसे कामभोगों का लालच दें, यों वे उसके लिये अनुकूल उपसर्ग प्रस्तुत करे उसके न मानने पर यदि वे उसको बांधकर घर ले जाए, यों वे प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित करें अर्थात् अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों प्रकार के उपसर्गों से अभिद्रुत-आक्रान्त-उत्पीड़ित होकर भी साधु को चाहिये कि वह जीवन की इच्छा नहीं करे-परवाह नहीं करे । यदि वह असंयममय जीवन का अभिनन्दन नहीं करता, उसे पसन्द नहीं करता तो उसके पारिवारिक जन उसे अपने वश में नहीं कर सकते तथा वे उस मुनि को गृहस्थ में स्थापित नहीं कर सकते-वापस उसको गृही नहीं बना सकते । इस प्रस्तुत गाथा में 'णं' शब्द वाक्यालङ्कार के रूप में आया है ।
सेहंति य णं ममाइणो-मायपिया य सुयाय भारिया ।
पोसाहि ण पासओ तुम लोग परंपि जहासि पोसणो ॥१९॥ छाया - शिक्षयन्ति च ममत्ववन्तः माता पिता च सुताश्चभावें ।
पोषय नः दर्शक स्त्वं लोकं परमपि जहासि पोषय नः ॥ अनुवाद - मुनि के माता-पिता, पुत्र-पत्नी आदि संबन्धी जन उसके पास आते हैं और उसे यों समझाते हैं-देखो ! तुम दर्शक-सूक्ष्म दृष्टा हो । सब बातों को गहराई से जानते हो । इसलिये हमारा पोषण करो । तुम हमारा पालन न कर परलोक बिगाड़ रहे हो इसलिए आओ हमारा पालन करो ।
टीका - किञ्च ते कदाचिन्मातापित्रादयस्तमभिनव-प्रव्रजितं 'सेहंति' त्ति, शिक्षयन्ति, णमिति वाक्यालङ्कारे "ममाइणो" त्ति, ममायमित्येवं स्नेहालवः, कथं शिक्षयन्तीत्यत आह-पश्य नः अस्मानत्यन्तदुःखितांस्त्वदर्थं पोषकाभावाद्वा, त्वञ्च यथावस्थितार्थपश्यक:-सूक्ष्मदर्शी सश्रुतिक इत्यर्थः, अतः नः अस्मान् पोषय प्रति जागरणं कुरु, अन्यथा प्रव्रज्याम्युपगमेनेहलोकस्त्यक्तो भवता, अस्मत्प्रतिपालनपरित्यागेन च परलोकमपि त्वं त्यजसि इति दुःखितनिजप्रतिपालनेन च पुण्यावाप्ति रेवेति, तथाहि
"या गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु गृहमेधिनाम् । विभ्रतां पुत्रदारॉस्तु तां गतिं व्रज पुत्रक" ॥१९॥
टाकार्थ - एक नये दीक्षा लिये साधु के पास उसके मां-बाप आदि रिश्तेदार आते हैं, समझाते हैं। यहाँ 'णं' शब्द वाक्यालंकार के रूप में प्रयुक्त है । मुनि के रिश्तेदार-यह हमारा है-यों सोचकर उसे स्नेहभाव से शिक्षा देते हैं । आगमकार बतलाते हैं वे कैसे शिक्षा देते हैं-समझाते हैं-वे यों कहते हैं-कि देखो ! तुम्हारे
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