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वैतालिय अध्ययनं टीकार्थ - गाथा में आया हुआ सउणी-शकुनी या शकुनिका पक्षिणी का बोधक है । जैसे एक पक्षिणी अपने शरीर पर लगे हुए रजकणों को कंपाकर-छिलाकर-झाड़कर गिरा देती है, उसी प्रकार अहिंसा धर्म का परिपालक मुक्तिगमन योग्य-मोक्ष पाने का अधिकारी उपधान-अनशन आदि तपोमय व्रतयुक्त साधु ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षय कर देता है । उपधान उसे कहा है जो उप + समीपे + धीयते अर्थात् मोक्ष के समीप जीव को स्थापित करता है । अनशन आदि तप इसमें आते हैं । गाथा में 'माहन' शब्द आया है । 'माहन' उसे कहा जाता है जिसमें प्राणी की हिंसा की प्रवृत्ति नहीं होती । प्राकृत में माहन का माहण हो जाता है।
उट्ठिय मणगार मेसणं, समणं ठाणठिअं तवस्सिणं ।
डहरा बुड्डा य पत्थए, अवि सुस्से ण य तं लभेज णो ॥१६॥ छाया - उत्थित मनगारमेषणां श्रमणं स्थानस्थितं तपस्विनम् ।
___दहराः वृद्धाश्च प्रार्थयेयुरपि शुष्येयु न च तं लभेयुः ॥
अनुवाद - गृहत्यागी तथा एषणा के परिपालन में उत्त्थित्त-तत्पर संयमी, तपस्वी, साधु के समीप, उसके माता, पिता, पुत्र, पौत्रादि पारिवारिक जन आकर यह अभ्यर्थना करे कि दीक्षित जीवन का परित्याग कर घर चलो, वे ऐसा करते करते थक भी जाय तो भी वे मुनि को आकृष्ट नहीं कर सकते-लुभा नहीं सकते।
___टीका - अनुकूलोपसर्गमाह-'उट्ठिये' त्यादि, अगारं गृहं तदस्य नास्ती त्यनगारः तमेवंभूतं संयमोत्थानेनैषणां प्रत्युत्थितं-प्रवृतं, श्राम्यतीति श्रमणस्तं, तथा स्थानस्थितम् उत्तरोत्तर विशिष्ट संयम स्थानाध्यासिनं तपस्विनं विशिष्ट तपोनिष्टप्तदेहं तमेवंभूतमपि कदाचित् दहराः पुत्रनप्वादयः वृद्धाः पितृमातुलादयः उन्निष्क्रामयितुं प्रार्थयेयु र्याचेरन्, त एव मूचुः-भवता वयं प्रतिपाल्याः न त्वामन्तरेणास्माकं कश्चिदस्ति, त्वं वाऽस्माकमेक ए एव प्रतिपाल्यः (इति) भणन्तस्ते जना अपि शुष्येयुः श्रमं गच्छेयुः न च तं साधुं विदितपरमार्थं लभेरन् नैवात्मसात्कुर्य्यः नैवात्मवशगं विदध्युरिति ॥१६॥
टीकार्थ - आगमकार अब अनुकूल उपसर्ग-औरों की तरफ से आने वाले विघ्न की चर्चा करते हुए कहते हैं -
अगार का अर्थ घर है । जिसके घर नहीं होता उसे अणगार कहा जाता है । एक ऐसा साधु है जो घर का त्याग कर चुका है, संयम धारण किये हुए हैं, एषणा के पालन में तत्पर है, तप में उद्यत है, उत्तरोत्तर विशिष्ट संयमाचरण में संलग्न होता हुआ, विशिष्ट तपश्चरण द्वारा अपनी देह को परितप्त कर रहा है । उस मुनि के पास कभी उसके पुत्र, पोते आदि वृद्ध पिता मामा आदि आकर यह प्रार्थना करे कि हम आप द्वारा प्रतिपाल्य हैं-आप द्वारा हमारा पालन पोषण किया जाना चाहिये-देख रेख की जानी चाहिये । आपके अतिरिक्त हमारा कोई सहारा नहीं है, आप ही हमारे प्रतिपालक हैं-ऐसा कहते कहते वे चाहे परिश्रान्त हो जाय-सूख जाय-थक जाय तो भी परमार्थवेत्ता-जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष को जानने वाले मुनि को वे अपना वशवर्तीआधीन नहीं बना सकते अर्थात् उसे आकृष्ट नहीं कर सकते ।
जइ कालुणियाणि कासिया जइ रोयंति य पुत्तकारणा । दवियं भिक्खू समुट्ठियं, णो लब्भंति ण संठवित्तए ॥१७॥
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