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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् चक्रवर्तिनाऽपि मौनीन्द्रपदमुपस्थितेन पूर्व मात्मप्रेष्यमपि वन्दमानेन लज्जा न विधेया इतरेण चोत्कर्ष इत्येवं 'समतां' समभावं सदा भिक्षुश्चरेत्-संयमोद्युक्तो भवेदिति ॥३॥
टीकार्थ - औरों का तो कहना ही क्या ? जो स्वयं प्रभु सबका स्वामी चक्रवर्ती सम्राट् है, जिसके ऊपर कोई नायक नहीं है, दूसरी ओर जो नौकर का भी नौकर है, उस सम्राट् के कर्मचारी का भी सेवक है, वे दोनों ही-चक्रवर्ती और सोवक यदि मोक्षप्रद मुनि व्रत को स्वीकार कर लेते हैं-संयम का पथ अपना लेते हैं तो उन्हें लज्जा का परित्याग कर-उच्च नीच का भेद छोड़कर अपने उत्कर्ष-ऊंचे पद का गर्व न करते हुए तथा पूर्व में सेवक रहे व्यक्ति को नीचा न मानते हुए लज्जा छोड़कर परस्पर वंदन नमस्कार आदि सभी क्रियाओं को भली भांति करना चाहिये । कहने का अभिप्राय यह है कि चाहे चक्रवर्ती सम्राट भी क्यों न हो, किन्तु संयम ले लेने के बाद अपने से पहले दीक्षा लिये नौकर को भी जो अब साधु है, वन्दन-नमस्कार करने में शर्म महसूस नहीं करनी चाहिये । न दूसरों के समक्ष अपना उत्कर्ष-बडप्पन का अभिमान प्रकट करना चाहिये किन्तु सदैव समत्त्व भाव का आश्रय लेकर साधु को संयम की आराधना में तत्पर रहना चाहिये ।
सम अन्नयरंभि संजमे, संसुद्धे समणे परिव्वए ।
जे आवकहासमाहिये दविए काल मकासीपंडिए ॥४॥ छाया - समोऽन्यतरस्मिन् संयमे संशुद्धः श्रमणः परिव्रजेत् ।
यावत् कथा समाहितो द्रव्यः काल मकार्षीत् पण्डितः ॥ ___ अनुवाद - सम-समत्त्व भाव युक्त, शुद्ध संयम में अवस्थित सत् असत् के विवेक में निपुण तपश्चरण शील मुनि अपने संयम स्थान में स्थित होता हुआ साधनामय जीवन में अविचल रहता हुआ प्रव्रज्या का-मुनि जीवन का भली भांति पालन करता रहे ।
टीका - क्व पुनर्व्यवस्थितेन लज्जामदो न विधयाविति दर्शयितुमाह-'समे' ति समभावोपेनः सामायिकादौ संयमे संयमस्थाने वा षट्स्थानपतितत्वात् संयमस्थानानामन्यतरस्मिन् संयमस्थाने छेदोपस्थापनी यादौ वा, तदेव विशिनष्टि-सम्यक्शुद्धे सम्यक् शुद्धों वा 'श्रमणः' तपस्वी लजामद परित्यागेन समानमना वा परिव्रजेत्' संयमोद्युक्तो भवेत. स्यात-कियन्तं कालम? यावत कथा-देवदत्तो यज्ञदत्त इति कथां यावत, सम्यगाहित आत्मा ज्ञानादौ येन स समाहितः समाधिना वा शोभनाध्यवसायेन यक्तः द्रव्यभतो रागद्वेषादिरहितः मक्तिगमनयोग्य तथा वा भव्यः स एवम्भूतः कालमकार्षीत् 'पंडितः' सदसद्विवेककलितः, एतदुक्तं भवति-देवदत्त इति कथा मृतस्यापि याव-मृत्युकालं ताव ल्लज्जामदपरित्यागो पेतेन संयमानुष्ठाने प्रवर्तितव्यमिति स्यात् ।।४।।
टीकार्थ – साधु को किसी भी स्थिति में रहते हुए अहंकार नहीं करना चाहिये और अपना बडप्पन मानते हुए शर्म नहीं करनी चाहिये । यह दिग्दर्शन कराने हेतु आगमकार कहते हैं -
समत्त्व भाव युक्त सामायिक आदि संयम स्थान में अवस्थित षट्स्थान विभक्त-छः भागों में बंटे हुए किसी एक संयम स्थान में विद्यमान अथवा छेदोपस्थापनीय आदि चारित्र में स्थित तपश्चरणशील मुनि शुद्ध आचारशीलव्रतशील भिक्षु लज्जा तथा अहंकार का परित्याग कर अपने मन में समानता पूर्ण वृत्ति लिये साधना में तत्पर रहें । फिर प्रश्न उपस्थित करते हुए विषय को आगे बढ़ाया जाता है कि वह साधु कितने समय तक ऐसा
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