________________
श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् धूणिया कुलियं व लेववं किसए देह मणासणाइहिं ।
अविहिंसामेव पव्वए अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो ॥१४॥ छाया - धूत्वा कूडयं व लेपवत् कर्शयेदृह मनशनादिभिः ।
__ अविहिंसामेव प्रव्रजेदनुधर्मो मुनिना प्रवेदितः ॥ अनुवाद - जैसे एक दीवार पर गोबर, मिट्टी आदि का सघन लेप लगा हो, उसे गिराकर-हटाकर दीवार कृश या पतली कर दी जाती है उसी प्रकार मुनि को चाहिये वह अनशन आदि तप द्वारा अपनी देह को कृश करे । अहिंसा धर्म का अनुसरण करे । भगवान महावीर ने यही प्रतिपादित किया है ।
टीका - अपि च 'धूणिया' इत्यादि, धूत्वा विधूकुलियं कडणकृतं कुड्यं लेपवत् सलेपम् अयमत्रार्थः - यथा कुडच्यं गोयमादिलेपेन सलेपं जाघट्यमानं लेपामगमात्कृशं भवति, एवमनशनादिभि देह कर्शयेद् अपचित मांस शोणितं विदध्यात् तपदचयाच्च कर्मणोऽपचयो भवतीति भावः । तथा विविधा हिंसा विहिंसा न विहिंसा अविहिंसा तामेव प्रकर्षेण व्रजेत् अहिंसा प्रधानो भवेदित्यर्थः, अनुगतो मोक्षम्प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः असावहिंसा लक्षणपरीषहोपसर्गसहनलक्षणश्च धर्मों मुनिना सर्वज्ञेन प्रवेदितः कथित इति ॥१४॥
___टीकार्थ - गोबर तथा मृतिका आदि से लिप्त भित्ति-दीवार से जैसे लेप हटाकर उसे कृश-पतला कर दिया जाता है उसी प्रकार अनशन आदि तपश्चरण द्वारा मुनि को अपना शरीर कृश करना चाहिये । शरीर के मांस, रक्त आदि को सुखा देना चाहिये । इसका आशय यह है कि शरीर के मांस, रक्त आदि जब कृश या न्यून होने लगते हैं तो कर्म भी कृश या क्षीण होने लगते हैं । यहां विहिंसा शब्द आया है जो विविध प्रकार की हिंसा के अर्थ में है । उसे न करना अविहिंसा कहा जाता है। मुनि का यह कर्त्तव्य है कि वह अविहिंसा धर्म का पूर्णरूपेण पालन करे । वह अपने जीवन में अहिंसा को प्रधानता देकर वर्तनशील रहे । जो धर्म मोक्ष के अनुगत या अनुकूल होता है, उसे अनुधर्म कहा जाता है । यह अहिंसा है, परिषह एवं उपसर्गों को समभावपूर्वक सहना करना है । सर्वज्ञ प्रभु ने इन्हीं को धर्मवत् बतलाया है ।
सउणी जह पंसुगुंडिया, विहुणिय धंसयई सियं रयं । __एवं दवि ओवहाणवं, कम्मं खवइ तवस्सिमाहणे ॥१५॥ छाया - शकुनिका यथा पांसुगुण्ठिता, विधुय ध्वंसयति सितं रजः ।
एवं द्रव्य उपधानवान् कर्म क्षयपति तपस्वी माहनः ॥ अनुवाद - जैसे एक शकुनि-पक्षिणी अपनी देह पर लगी हुई रज को झाड़कर गिरा देती है उसी प्रकारउपधानवान्-उत्तम व्रत युक्त तपस्वी-तपश्चरणशील साधक अपने कर्मों को क्षीण-ध्वस्त कर डालता है।
टीका - किञ्च, शकुनिका पक्षिणी यथा पांसुना रजसा अवगुण्ठिता खचिता सती अङ्गं विधूय कम्पयित्वा तद्रजः सितमवबद्धं सत् ध्वंसयति अपनयति, एवं द्रव्यों भव्यों मुक्तिगमनयोग्यो मोक्षम्प्रत्युप सामीप्येन दधातीत्युपधानमनशनादिकिं तपः तदस्यास्तीत्युपधानवान् स चैवंभूतः कर्म ज्ञानवरणादिकं क्षपयति अपनयति तपस्वी साधुः 'माहण" त्ति मा वधीरिति प्रवृत्ति यस्य स प्राकृत-शैल्या माहणेत्युच्यते ॥१५॥
142