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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् यों प्रतिपादित कर आगमकार ने ईर्या समिति की ओर संकेत किया है । वह ईर्या समिति तो उपलक्षण मात्र है । इससे अन्य सभी समितियों को लेना चाहिये । शास्त्रों में जैसी रीति बतलाई है, उसी प्रकार संयम का पालन करना चाहिये । सभी तीर्थंकरों ने इसी बात पर बल दिया है।
विरया वीरा समुट्ठिया, कोहकाय रियाइपीसणा ।।
पाणे ण हणंति सव्वसो, पावाओ विरयाऽभिनिव्वुडा ॥१२॥ छाया - विरताः वीराः समुत्थिताः क्रोधकातरिकादिपीषणाः ।
__ प्राणिनो न घ्नन्ति सर्वशः पापाद्विरता अभिनिर्वृताः ॥ अनुवाद - जो व्यक्ति हिंसा आदि पाप कार्यों से विरत-निवृत्त है-समुत्थित है, हिंसादि-पापकर्मों को छोड़कर ऊपर उठे हुए हैं तथा क्रोध, अहंकार माया-छलना तथा लोभ का परित्याग कर मन से, वचन से तथा शरीर से प्राणियों का व्यापादन नहीं करते हैं वे सब पापों से रहित होते हैं तथा मोक्ष प्राप्त जीव के सदृश ही शांत होते हैं।
टीका - अथ क एते वीरा इत्याह-'विरया' इत्यादि, हिंसानृतादि पापेभ्यो ये विरताः विशेषेण कर्म प्रेरयन्तीति वीराः, सम्यगारम्भ परित्यागेनोत्थिताः समुत्थिताः, ते एवं भूताश्च, क्रोध कातरिकादिपीषणाः, तत्र क्रोधग्रहणान्मानो गृहीतः, कातरिका माया तद्ग्रहणाल्लोभो गृहीतः, आदिग्रहणाच्छेषमोहनीय परिग्रहः तत्पीषणास्तदपनेतारः तथा प्राणिनो जीवान् सूक्ष्मेतरभेदभिन्नान् सर्वशोमनोवाक्काय-कर्मभिर्न घ्नन्ति न व्यापादयन्ति। पापाच्चसर्वतःसावद्यानुष्ठानरू-पाद्विरताः,निवृत्ताः ततश्च अभिनिर्वृत्ता:क्रोधाद्युपशमेन शांतिभूताः, यदि वा अभिनिर्वत्ता इव अभिनिर्वृत्ताः मुक्ता इव द्रष्टव्या इति ॥१२॥
टीकार्थ - जिनकी पहले चर्चा आई है, उस तरह विचरणशील वीर पुरुष कौन है ? इसे स्पष्ट करने के लिये आगमकार बतलाते हैं । जो पुरुष हिंसा तथा असत्य आदि पापों से विरत है-हटे हुए हैं तथा जिन्होंने विशेष रूप से कर्मों का उच्छेद-कर दिया है एवं आरम्भ-हिंसा आदि का त्याग कर संयम के पालन में तत्पर हैं । जिन्होंने क्रोध और माया का नाश कर दिया है अर्थात् जो क्रोध, मान, माया, लोभ तथा शेष मोहनीय आदि कर्मों का नाश कर चके हैं, जो मानसिक. वाचिक और कायिक कर्म द्वारा प्राणियों का व्यापादन नहीं करते हैं, जो पाप युक्त कार्यों से हटे हुए हैं, क्रोध आदि के शांत हो जाने से जिनका जीवन शांतिपूर्ण है, वे मुक्तात्मा के सदृश सुख युक्त हैं । यहां क्रोध के ग्रहण से मान का तथा माया के ग्रहण से लोभ का एवं आदि शब्द से अवशिष्ट मोहनीय कर्मों का ग्रहण हैं ।
णवि ता अहमेव लुप्पए, लुप्पंति लो अंसि पाणिणो ।
एवं सहिएहिं पासए, अणिहे से पुढे अहियासए ॥१३॥ छाया - नाऽपि तैरहमेव लुप्ये, लुप्यन्ते लोके प्राणिनः ।
एवं सहितः पश्येत् अनिहः स स्पृष्टोऽधिसहेत ॥
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