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वैतालिय अध्ययन संयमी जीवन पल्योपम के बीच ही होता है । वह भी ऊन-कुछ कम पूर्व कोटि तक ही होता है । मनुष्यों का जीवन नश्वर है । उसे गत-गया हुआ या बीता हुआ ही समझना चाहिये । अतएव यह मनुष्य जीवन स्वल्प है-अल्पकाल स्थायी है। यह जानकर जब तक वह समाप्त नहीं हो जाता तब तक धार्मिक कृत्यों के आचरण द्वारा उसे सफल बनाना चाहिये । जो मनुष्य मनुष्य जीवन प्राप्त कर इस संसार में आकर भोगों के कीचड़ में फंसे रहते हैं तथा काम वासनामेंआसक्त रहते हैं वे मोह मूढ़ होते हैं । उनको अपना वास्तविक हित-श्रेयस पाने का और अहित-अश्रेयस छोड़ने का ज्ञान नहीं होता । ऐसे पुरुष मोहनीय कर्म का बंध करते हैं । जो व्यक्ति हिंसा आदि पाप पूर्ण कार्यों से अनिवृत रहते हैं, अटते नहीं, जिनकी इंद्रियां संयम रहित होती है, वे भी मोहनीय कर्म का संग्रह करते हैं ।
जययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा ।
अणुसासणमेव पक्कमे वीरेहिं संमं पवेइयं ॥१९॥ छाया - यतमानो विहर योगवान, अणुप्राणाः पन्थानो दुरुत्तराः ।
अनुशासनमेव प्रकामेद, वीरैः सम्यक् प्रवेदितम् ॥ अनुवाद - मानव तुम यतनापूर्वक-जागरूकता के साथ, योगवान-मन, वचन एवं काय योगों को गुप्त रखते हुए अथवा समिति गुप्ति से युक्त होते हुए विचरण करो । यह पथ-मार्ग अनुप्राण-सूक्ष्मप्राणियों से भरा हुआ है । उपयोग के बिना यह दुरुत्तर-कठिनाई से पार किये जाने योग्य है । शास्त्रों में जो अनुशासन-संयम पालन का विधिक्रम बतलाया गया है, उसी के अनुसार संयम का अनुसरण करना चाहिये। सभी तीर्थंकरों नेऐसा प्रवेदित किया है-उपदेश दिया है, आदेश दिया है ।
टीका - एवञ्च स्थिते यद्विधेयं तदर्शयितुमाहस्वल्पं जीवितमवगम्य विषयांश्च क्लेश प्रायानवबुध्य छित्वा गृहपाशबन्धनं यतमानः यत्नं कुर्वन् प्राणिनामनुपरोधेन विहर उद्युक्त विहारी भव । एतदेव दर्शयति
योगवानिति संयमयोगवान् गुप्तिसमितिगुप्त इत्यर्थः । किमित्येवं, यतः अणवः सूक्ष्माः प्राणाः प्राणिनो येषु पथिषु ते तथा ते चैवं भूताः पन्थानोऽनुपयुक्तैर्जीवानुपमर्दैन दुस्तराः दुर्गमा इति अनेन ई-समितिरुपक्षिप्ता। अस्याश्चोपलक्षणार्थत्वाद अन्यास्वपि समितिषु सततोपयुक्तेन भवितव्यम् अपि च अनुशासनमेव यथागमभेव सूत्रानुसारेण संयमं प्रति क्रामेद् एतच्च सर्वेरेव वीरैः अर्हद्भिः सम्यक् प्रवेदितं प्रकर्षणाख्यातमिति ॥११॥
टीकार्थ - उपर्युक्त स्थिति में मानव का जो कर्त्तव्य है, उसे प्रकट करने हेतु आगमकार बतलाते
हे पुरुष ! तू अपने जीवन को स्वल्प-अल्पकालिक तथा विषयों को क्लेशप्रायः-अधिकांशतः कष्टपूर्ण जानकर गृहपासबन्धन-गृहस्थी के जाल को काट डालो, यत्नापूर्वक प्राणियों की हिंसा न करते हुए विहरण शील बनो । शास्त्रकार यही बतलाते हैं-वे कहते हैं कि हे पुरुष ! तुम गुप्ति गुप्त और समिति समित बनोगुप्तियों और समितियों का अनुपालन करो । ऐसा क्यों ? इसलिये कि ये मार्ग, रास्ते, सूक्ष्म-बहुत छोटे छोटे प्राणियों से आपूर्ण है-भरे हुए हैं । उपयोग के बिना इन्हें पार करना कठिन है क्योंकि वैसा हुए बिना उन रास्तों में जीवों का उपमर्द-व्यापादन या हिंसा हुए बिना नहीं रहती ।
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