________________
वैतालिय अध्ययन इस गाथा में आया हुआ 'अथ' शब्द अधिकार या आदेश का भाव लिये हुए है ।
शिष्य को संबोधित कर भगवान कहते हैं-कई अन्य तीर्थ संसार को अनित्य समझ कर परिग्रह का परित्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं । मोक्ष प्राप्ति हेतु उद्यत होते हैं । वे संसार को पार-संसार रूपी समुद्र को लांघना चाहते हैं किन्तु सम्यग्ज्ञान के अभाव में मोक्ष या इसकी प्राप्ति के साधन संयम की केवल चर्चा करते हैं । उस संबंध में केवल बात बनाते हैं किंतु उसका अनुसरण नहीं करते क्योंकि वैसा करने का उन्हें ज्ञान नहीं है । हे शिष्य ! तुम भी यदि उन द्वारा बताये हुए मार्ग पर चलोगे तो आर-इस भव और परभव को-इस लोक को और परलोक को कैसे जान सकोगे । अथवा आर का अर्थ गृहस्थ का धर्म, संसार का धर्म भी होता है, उसके पार कैसे जा सकोगे-प्रव्रज्या स्वीकार कर किस तरह उसे पार कर सकोगे, अथवा आर का एक अर्थ संसार है और पार का अर्थ मोक्ष है । इन दोनों को तुम कैसे जान सकोगे । जो पुरुष अन्य मतवादियों के रास्ते पर चलता है वह दोनों ओर से भ्रष्ट होकर बीच में ही कर्मों द्वारा काटा जाता हैउत्पीडित किया जाता है ।
जइ वि य णगिणे किसे चरे, जइ विय भुंजिय मासमंतसो।
जे इह मायाइ मिजई, आगंता गब्भाय णंतसो ॥९॥ छाया - यद्यपि च नग्नः कृशश्चरेद, यद्यपि च भुञ्जीत मासमन्तशः ।
य इह पायादिना मीयते, . आगन्ता गर्भायानन्तशः ॥ अनुवाद - जो मनुष्य माया-छलना प्रवंचना आदि कषायों से युक्त है, वह चाहे नग्न-वस्त्र विहीन होकर रहे, तप आदि से कृश-दुर्बल होकर विचरण करे, चाहे एक एक महिने के बाद खाये-मास खमण तप करे, तो भी वह अनन्तकाल तक गर्भ में आता है, आवागमन के चक्र में भटकता है।
टीका - ननु च तीथिका अपि केचन निष्परिग्रहास्तथा तपसा निष्टप्तदेहाश्च तत्कथं तेषां नो मोक्षावाप्तिरित्येतदाशङ्कयाह-यद्यपि तीर्थिकः कश्चित् तापसादिस्त्यक्तबाह्यगृहवासादिपरिग्रहत्वात् निष्क्रिञ्चनतया नग्नः त्वक्त्राणाभावाच्च कृशः चरेत् स्वकीय-प्रव्रज्यानुष्ठानं कुर्यात् यद्यपि च षष्ठाष्ठमदशमद्वादशादि तपो विशेषं विधत्ते यावद् अन्तशो मासं स्थित्वाभुङ्क्ते तथापि आन्तर कषाया परित्यागान्न मुच्यते इति दर्शयतियः तीर्थिक इह मायादिना मीयते, उपलक्षणत्वात् कषायैर्युक्त इत्येवं परिच्छिद्यते, असौ गर्भाय गर्भार्थ मा समन्तात् गन्ता यास्यति, अनन्तशो निरवधिकं कालमिति, एतदुक्तं भवति-अकिञ्चनोऽपि, तपोनिष्टप्तदेहोऽपि कषाया परित्यागान्नरकादिस्थानात् तिर्यागादिस्थानं गर्भाद् गर्भ मनन्तमपि कालमग्निशर्मवत् संसारे पर्यटतीति ॥९॥
टीकार्थ - कई एक अन्य मतवादी निष्परिग्रह-परिग्रहरहित होते हैं । तप द्वारा शरीर को तपा डालते हैं । फिर भी उनको मोक्ष की अवाप्ति-उपलब्धि क्यों नहीं होती ? शास्त्रकार यह शंका उठाकर प्रतिपादन करते हैं ।
यद्यपि कई एक परतीर्थिक-तापस आदि परम्पराओं से संबद्ध बाहरी रूप में परिग्रह का परित्याग कर अकिंचन बन जाते हैं । वस्त्र त्याग कर नग्न रहते हैं, कष्ट से कृश-दुर्बलकाय होते हैं । अपने द्वारा स्वीकृत
-137)