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वैतालिय अध्ययनं विशिष्ट जन एवं साधारण पुरुष, नगर के श्रेष्ठिजन तथा ब्राह्मण आदि सभी बड़े दुःख के साथ अपने-अपने स्थानों को छोड़कर चले जाते हैं । प्राण त्याग करते समय सभी प्राणियों को अत्यन्त कष्ट होता है ।
कामेहि ण संथवेहि गिद्धा, कम्मसहा कालेण जंतवो । ताले जह बंधणच्चुए एवं आउक्खयंमि तुट्टती ॥६॥
छाया
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कामेषु संस्तवेषु गृद्धा, कर्मसहाः कालेन जन्तवः । तालं यथा बन्धनाच्युतमेव मायुः क्षये त्रुटयति ॥
अनुवाद - कामभोगों में-सांसारिक विषयों में तृष्णायुक्त पारिवारिक जनों में आसक्त प्राणी समय आने पर अपने कृत कर्मों का फल भोगते हुए आयु क्षय होने पर उसी प्रकार समाप्त हो जाते हैं जैसे ताड़ का बंधा हुआ फल बंधन के छूट जाने पर गिर जाता है ।
टीका किञ्च ‘कामेहिं' इत्यादि, कामैरिच्छामदनरूपैस्तथा संस्तवै पूर्वापरभूतैः गृद्धा अध्युपपन्नाः सन्तः कम्मसहेत्ति कर्मविपाकसहिष्णवः कालेन कर्मविपाककालेन जन्तवः प्राणिनो भवन्ति । इदमुक्तं भवतिभोगेप्सोर्विषयासेवनेन तदुपशममिच्छत इहामुत्र च क्लेश एव केवलं न पुनरूपशमावाप्तिः तथाहि
“उपभोगोपायपरो वाञ्छति यः शमयितुं विषय तृष्णाम् । धावत्याक्रमितुमसौ पुरोऽपराह्णे निजच्छायाम् "? नच तस्य मुमूर्षोः कामैः संस्तवैश्च त्राणमस्तीति दर्शयति-यथा तालफलं बन्धनाद् वृन्तात्च्युतमत्राणमवश्यं पतति एवमसावपि स्वायुषः क्षये त्रुट्यति जीवितात् च्यवत इति ॥ ६ ॥
टीकार्थ - इच्छा मदन रूप काम विषय भोग की तृष्णा से युक्त तथा पूर्ववर्ती एवं पश्चात्वर्ती सम्बन्धी जनों में आसक्त प्राणी अपने कर्म उदित होने पर उनका फल भोगते हैं । इसका आशय यह है कि विषय सेवन की इच्छा में संलग्न पुरुष विषयों द्वारा - भोगों द्वारा अपनी तृष्णा को मिटाना चाहता है, शांत करना चाहता है । वह इस लोक में तथा परलोक में कष्ट ही प्राप्त करता है । उनकी तृष्णा कभी शांत नहीं होती । इसलिये कहा गया है कि जो व्यक्ति भोगपरायण-भोग संलग्न रहकर विषय तृष्णा को शांत करना चाहता है, वह मानव अपराह्न में मध्याह्न के पश्चात् • अपनी छाया को आक्रान्त करने हेतु पकड़ने हेतु मानो दौड़ता है । मरणशील मानव की काम भोग द्वारा तथा परिचित जनों एवं पदार्थों द्वारा त्राण नहीं होता । वे उसके शरण नहीं बनते, आगमकार इसका दिग्दर्शन करते हुए कहते हैं कि जैसे बंधन से वृक्ष के वृन्तया - तन्तु से च्युत छूटा हुआ ताड़ का फल अवश्य ही गिर जाता है कोई भी उसे गिरने से रोक नहीं सकता, उसी प्रकार जब प्राणी का आयुष्य क्षीण हो जाता है तो वह अपने जीवन से च्युत हो जाता है- मर जाता है ।
छाया
जे यापि बहुस्सुए सिया, धम्मियमाहणभिक्खुए सिता । अभिणूमकडेहिं मुच्छिए तिव्वं ते कम्मेहिं किच्चती ॥७॥
येचाऽपि बहुश्रुताः स्युः धार्मिक ब्राह्मणभिक्षुकाः स्युः । अभिच्छादककृतैर्मूर्च्छिता स्तीव्रं ते कर्मभिः कृत्यन्ते ॥
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