________________
श्री
सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
अनुवाद - मनुष्य चाहे कितने ही बहुश्रुत प्रचुर शास्त्राध्ययन किये हुए हों, धार्मिक-धर्म परायण हों, ब्राह्मण हों, चाहे भिक्षु श्रमण हों, यदि वे मायायुक्त कार्यों में संलग्न रहते हैं तो अपने कर्मों के फलस्वरूप अत्यन्त दुःखित होते हैं ।
टीका ये चाऽपि बहुश्रुताः शास्त्रार्थपारगाः तथा धार्मिकाः धर्माचरणशीलाः तथा ब्राह्मणाः भिक्षुकाः भिक्षाटनशीलाः स्युः भवेयुः, तेऽप्याभिमुख्येन 'णूम' न्ति कर्म माया वा तत्कृतैरसदनुष्ठानै र्मूर्च्छिताः गृद्धाः तीव्रमत्यर्थ मत्र च छान्तसत्वाद् बहुवचनं द्रष्टव्यम् त एवम्भूताः कर्माभिः सवेद्यादिभिः कृत्यन्ते छिद्यन्ते पीडयन्त इति यावत् ॥७॥
टीकार्थ जो बहुश्रुत - शास्त्र तत्त्व के पारगामी हैं, धार्मिक-धर्म का आचरण करते हैं, ब्राह्मण तथा भिक्षुक है-भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करने वाले साधु हैं, फिर भी वे यदि माया- छलना या प्रवञ्चना युक्त कार्यों में आसक्त हैं, तो वे सातावेदनीय - अनुकूल या सुखात्मक एवं असातावेदनीय - प्रति - कूल या दुःखात्मक कर्मों से उत्पीडित होते हैं । यहां छान्दस या आर्ष प्रयोग की दृष्टि से " किच्चती" - कृत्यते को बहुवचन में लेना चाहिये ।
अह पास विवेगमुट्ठिए, अवितिन्ने इह भासई धुवं । णाहिसि आरं कओ परं वेहासे कम्मेहिं किच्चती ॥८॥
छाया अथ पश्य विवेकमुत्थितोऽवितीर्ण इह भाषते ध्रुवम् । ज्ञास्यस्यारं कुतः परं विहायसि कर्मभिः कृत्यते ॥
अनुवाद - शिष्यों को या श्रोतृगण को संबोधित कर शास्त्रकार कहते हैं- देखो ! कई अन्य तीर्थि उत्थित होते हैं-परिग्रहादि युक्त अनित्य संसार का परित्याग कर प्रव्रजित होते हैं, किन्तु संयम का सम्यक् पालन न करने के कारण संसार सागर को पार नहीं कर सकते । वे मोक्ष की बात तो करते हैं किन्तु उसको प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करते हैं । तुम उनका आश्रय लेकर इस लोक और परलोक को कैसे जान पाते हों, वे अन्यतीर्थि बीच में ही अपना लक्ष्य पूरा किये बिना ही अपने कर्मों द्वारा काटे जाते हैं पीड़ित किये जाते हैं।
टीका - साम्प्रतं ज्ञान दर्शन चारित्र मन्तरेण नापरो मोक्षमार्गोऽस्तीति त्रिकाल विषयत्वात्सूत्रस्यागामितीर्थिकधर्मप्रतिषेधार्थ माह-अथेत्यधिकारान्तरे, बह्वादेशे एकादेशे इति । अथेत्यनन्तरमेतच्च पश्य, कश्चित्तीर्थिको विवेकं परित्यागं परिग्रहस्य परिज्ञानं वा संसारस्याश्रित्य उत्थितः प्रवज्योत्थानेन, स च सम्यक् परिज्ञानाभावादवितीर्णः संसारसमुद्रं ततीर्षुः केवलमिह संसारे प्रस्तावे वा शाश्वतत्वात् ध्रुवो मोक्षस्तं तदुपायं वा संयमं भाषत एव न पुन विधत्ते तत्परिज्ञानाभावादिति भावः । तन्मार्गे प्रपन्नस्त्वमपि कथं ज्ञास्यसि आरम् इह भवं कुतो वा परं परलोकं, यदि वा आरमिति गृहस्थत्वं परमिति प्रवज्यापर्य्यायम्, अथ वा आरमिति संसारं परमिति मोक्ष मेवं भूतश्चाऽन्योप्युभयभ्रष्टः 'वेहासि' त्ति अन्तराले उभयाभावतः स्वकृतैः कर्मभिः कृत्यते पीड्यते ॥८॥ सम्यक् ज्ञान, सम्यक्ं दर्शन एवं सम्यक् चारित्र के अतिरिक्त कोई भी मोक्ष का मार्ग न भूत था न वर्तमान में है और न भविष्य में होगा । ऐसा शास्त्रों में कहा है । इसलिये ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से पृथक् तत्त्व को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताने वाले अन्य तीर्थि जो आगे होंगे, उनका प्रतिषेध करते हुए आगमकार बतलाते हैं
टीकार्थ
-
136