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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् प्रव्रज्या-दीक्षा का-तद्गत नियमों का अनुष्ठान करते हैं । दो दिन की, तीन दिन की, चार दिन और पांच दिन की तपस्या करते हैं अन्ततः वे एक मास तक का तप करते हैं । इसके बावजूद यदि वे अपने भीतरी कषायक्रोध मान माया लोभ का नाश नहीं कर पाते, इनको नहीं जीत पाते तो, मोक्ष नहीं पा सकता । शास्त्रकार यह दिग्दर्शन कराते हैं कि -
जो प्राणी इस लोक में माया आदि से समायुक्त है, वे अनन्त काल तक गर्भ में आते रहते हैं । जन्म और मृत्यु को प्राप्त करते रहते हैं । यहा माया से अन्य कषाय भी उपलक्षित है । कहने का अभिप्राय है कि जो व्यक्ति अकिंचन है-परिग्रह की दृष्टि से जिनके पास कुछ भी नहीं है, जिनका शरीर तप से परितप्त है, किन्तु यदि वे कषाय विजय नहीं कर पाते-क्रोध आदि को नहीं छोड़ पाते, तो वे नरक वास आदि की यातनाएंपीड़ाएं सहन करते हैं । वहां से निकलकर फिर तिर्यञ्च योनि में जाते हैं । पुनश्च बारम्बार गर्भकाल प्राप्त करते हैं और मरते हैं । जैसे अग्निशर्मा नामक व्यक्ति को इसी प्रकार संसार में भटकना पड़ा था उसी तरह इन व्यक्तियों को भी इस संसार में भटकना पड़ता हैं ।
पुरिसो रम पावकम्मुणा, पलियंतं मणुयाण जीवियं ।
सन्ना इह काममुच्छिया, मोहं जंति नरा असंवुडा ॥१०॥ छाया - पुरुष ! उपरम पाप कर्मणा, पर्यन्तं मनुजानां जीवितम् । .
___ सन्ना इह काममूर्छिताः मोहं यान्ति नरा असंवृताः ॥
अनुवाद - हे पुरुष ! तुम पाप कर्मों में उद्यत न बनो, उन्हें छोड़ो । समझो ! मनुष्यों का जीवन पर्यन्त-अन्त युक्त या नश्वर है । जो मनुष्य इस संसार में या सांसारिक काम भोगों में आसक्त-लिप्त तथा मूर्च्छितखोया हुआ है । एवं हिंसा आदि पाप कृत्यों से निवृत्त नहीं है । वह मोह को प्राप्त होता है । मोह मूढ़ बन जाता है।
टीका - यतो मिथ्यादृष्ट्युपदिष्टतपसाऽपि न दुर्गतिमार्गनिरोधोऽतोमदुक्त एवं मार्गे स्थेयमेतद्गर्भमुपदेशं दातुमाह-'पुरिसो' इत्यादि, हे पुरुष ! येन पापेन कर्मणाऽसदनुष्ठानरूपेण त्वमुपलक्षितस्तत्राऽसकृत्प्रवृत्तत्वात् तस्मादुपरम निवर्तस्व । यतः पुरुषाणां जीवितं सुबह्वपि त्रिपल्योपमान्तं संयम जीवितं वा पल्योपमस्यान्तःमध्येवर्तते तदप्यूनांपूर्वकोटि मिति यावत् ।अथवा परिसमन्तादन्तोऽस्येति पर्यन्तंसान्तमित्यर्थ: यच्चैवं तद्गतमेवावगन्तव्यम्। तदेवं मनुष्याणां स्तोकं जीवितमवगम्य यावत्तन्न पर्येति तावद्धर्मानुष्ठानेनसफलं कर्त्तव्यं, ये पुनर्भोगस्नेहपङ्केऽवसन्ना मग्ना 'इह' मनुष्यभवे संसारे वा कामेषु इच्छामदनरूपेषु मूर्च्छिता अध्युपन्ना ते नराः मोहं यान्ति-हिताहितप्राप्तिपरिहारे मुह्यन्ति, मोहनीयं वा कर्म चिन्वन्तीति संभाव्यते एतदसंवृतानां हिंसास्थानेभ्योऽनिवृत्तानामसंयतेन्द्रि याणाञ्चेति ॥१०॥
टीकार्थ - आगमकार बतलाते हैं कि मिथ्या दृष्टि जिन तपों का उपदेश करते हैं, उनसे दुर्गति के मार्ग का निरोध नहीं होता । अतः हमारे द्वारा निरूपित मार्ग में ही स्थिर रहना चाहिये । इसी तथ्य को प्रकट करते हुए वे कहते हैं -
हे पुरुष ! तुम निरन्तर अशुभ कार्यों में संलग्न रहकर जिस पाप कर्म में ग्रस्त हो, उससे निवृत्त बनोहटो, क्योंकि मनुष्यों का जीवन अत्यधिक भी हो तो वह तीन पल्योपम से बढ़कर नहीं होता । पुरुषों का
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