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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः की दृष्टि से दे । इस कथन द्वारा यहां सोलह प्रकार के उत्पादन दोष परिगृहीत हैं, यह समझना चाहिये । अतएव वह भिक्षु दौत्य-दूत कार्य, गृहस्थों का संदेश पहुंचाना, धातृ-धाय का कार्य, गृहस्थ के बच्चों को लाड़ प्यार करना आदि तथा नैमित्तिक आदि दोषों से वर्जित आहार ग्रहण करने की इच्छा करे । इस कथन से दस प्रकार के एषणादोष परिगृहीत होते हैं । यह मानना चाहिये, जानना चाहिये । साधु आहार में अमूर्च्छित-अनासक्त रहे। राग द्वेष से विप्रमुक्त-विवर्जित रहे, इस कथन से पांच प्रकार के ग्राषैषणा दोषों का निरसन या परिवर्जन हो जाता है । इस प्रकार वर्तन करता हुआ, रहता हुआ मुनि दूसरों का अपमान न करे । अपनी तपस्या और ज्ञान का अहंकार न करें।
लोगवायं णिसामिज्जा, इहमेगेसि माहियं । विपरीयपन्नसंभूयं, अन्नउत्तं तयाणुयं ॥५॥ छाया - लोकवादं निशामयेद् इहैकेषामाख्यातम् ।
विपरीतप्रज्ञासम्भूत मन्योक्तं तदनुगम् ॥ अनुवाद - कई कहते हैं कि लोकवादियों का-पौराणिक सिद्धान्तों में विश्वास करने वालों का कथन सुनना चाहिये किन्तु वास्तविकता यह है कि उन लोकवादियों या पौराणिकों का मन्तव्य विपरीत बुद्धि से उत्पन्न है । वह अन्य मतवादियों के मत की तरह ही मिथ्या है-असत्य हैं।
टीका - एवं नियुक्तिकारेणोद्देशकार्थाधिकाराभिहितं 'किच्चुवमायचउत्थे' इत्येत्प्रदादानीं परवादिमत मेवाद्देशार्थाधिकाराभिहितं दर्शयितुमाह - .
लोकानां पाषाण्डिनां पौराणिकानां वा वादो लोकवादः-यथा स्वमभिप्रायेणान्यथा वाऽभ्युपगमस्तं निशामयेत शृणुयाजानीयादित्यर्थः तदेव दर्शयति 'इह' अस्मिन् संसारे एकेषां केषाश्चिदिदमाख्यात मभ्युपगमः । तदेव विशिनष्टि विपरीता परमार्थादन्यथाभूता या प्रज्ञा तया सम्भूतं समुत्पन्नं तत्त्वविपर्यस्तबुद्धि ग्रथितमिति यावत्, पुनरपि विशेष यति-अन्यै रविवेकिभिर्यदुक्तं तदनुगं यथा वस्थितार्थ विपरीतानुसरिभिर्यदुक्तं विपरीतार्थाभिधायितया तदनुगच्छतीत्यर्थः ॥५॥
टीकार्थ - नियुक्तिकार ने उद्देशकों का अधिकार-अभिप्राय बतलाते हुए प्रतिपादित किया है कि वे परतीथि गृहस्थों के समान हैं । यह चौथे उद्देशक का अर्थाधिकार है । उसे कहकर अब परवादियों के सिद्धान्त की चर्चा करते हैं । चतुर्थ उद्देशक का भी यह अधिकार है । पाखण्डियों या पौराणिकों का वाद-सिद्धान्त या मत लोकवाद कहा जाता है अथवा अपनी इच्छानुसार स्वीकार किये गये विपरीत मन्तव्य को लोकवाद कहते हैं । इस लोकवाद का श्रवण करना चाहिये । ऐसा अभिप्राय है । शास्त्रकार इसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं कि इस संसार में कई लोगों का इस प्रकार का सिद्धान्त है । उसका विशेष रूप से दिग्दर्शन कराते हुए वे बताते हैं कि वह लोकवाद ऐसे व्यक्तियों द्वारा रचित है जो पारमार्थिक दृष्टि से विपरीत बुद्धियुक्त है तथा जिनका ज्ञान यथार्थ तत्वज्ञान से उल्टा है । फिर शास्त्रकार पुनः लोक के सम्बन्ध में कहते हैं कि अन्य अविवेकी-विवेक शून्य मतवादियों ने असत्यं अर्थ या तत्त्व का प्रतिपादन किया है । लोकवाद भी उसी का अनुगामी है । इसका तात्पर्य यह है कि जो अविवेकी-अज्ञानी मतवादी पदार्थों का सत्य स्वरूप न बतलाकर
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