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____श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् है । इस प्रकार बोलने वाले, अपने सिद्धान्तों का बखान करने वाले अन्य तीर्थि संसार सागर से किसी को त्राण देने में-शरण देने में या किसी की रक्षा करने में सक्षम नहीं है ।
गाथा के उत्तरार्द्ध में शास्त्रकार इसे स्पष्ट करते हैं-जो पुरुष धर्मोपकरण के सिवाय अपने शरीरोपभोग के लिये-शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जरा भी परिग्रह नहीं रखते तथा जो सावद्य-सपाप आरम्भ हिंसादि कार्य नहीं करते, वे कर्म लघु-हल्के कर्मों वाले-जिन्होंने अपने सघन कर्म पुंज को अधिकांशत: उच्छिन्ननिर्जीण कर डाला है । संसार सागर से जीवों को पार लगाने के लिये उद्धार करने के लिये नौका के तुल्य समर्थ है । इसलिये औद्देशिक आदि सदोष आहार का अपरिभोजी शुद्ध भिक्षान्न जीवी भिक्षु-भाव भिक्षु ऐसे ही सत्पुरुषों की शरण में सर्वतोभावेन जाये ।
कडेसु घासमेसेजा, विऊ दत्तेसणं चरे ।
अगिद्धो विप्पमुक्को अ ओमाणं परिवज्जए ॥४॥ छाया - कृतेषु ग्रासमेषयेत्, विद्वान् दत्तैषणां चरेत् ।
अगृद्धो-विप्रमुक्तश्च अपमानं परिवर्जयेत् ॥ ___ अनुवाद - विद्वान्-ज्ञान सम्पन्न मुनि अन्य द्वारा तैयार किये गए आहार की गवेषणा करे-शुद्धाशुद्ध की खोज करे । दत्त-दिये हुए आहार को ही लेने की इच्छा रखे । आहार में गृद्ध-मूर्छित, आसक्त न बने, राग द्वेष न करे, तथा किसी अन्य के अपमान-तिरस्कार का परिवर्जन करे-दूसरे का अपमान न करे ।
टीका-कथं पुनस्तेनापरिग्रहेणानारम्भेण च वर्तनीय मित्येतद्दर्शयितुमाह - गृहस्थैः परिग्रहारम्भद्वारेणाऽऽत्मार्थं ये निष्पादिता ओदनादयस्ते कृता उच्यन्ते तेषु कृतेषु परकृतेषु परनिष्ठितेष्वित्यर्थः अनेन च षोडशोद्गमदोष परिहार : सूचितः, तदेवमुद्गमदोषरहितं ग्रस्यत इति ग्रासः-आहार स्तमेवं भूतम् अन्वेषयेत् मृगयेद् याचेदित्यर्थः। तथा विद्वान्संयमकरणैकनिपुणः परैराशंसादोषरहितै र्यन्निःश्रेयसबुद्धया दत्तमिति,अनेन षोडशोत्पादनदोषाः परिगृहीताः द्रष्टव्याः सदेवम्भूते दौत्यधात्रीनिमित्तादि दोषरहिते आहारे स भिक्षुः एषणां ग्रहणैषणां चरेदनुतिष्ठेदिति। अनेनाऽपि दशैषणादोषाः परिगृहीता इति मन्तव्यं, तथा अगृद्धः अनध्युपपन्नोऽमूर्च्छित स्तस्मिन्नाहारे रागद्वेषविप्रमुक्तः अनेनाऽपि च ग्रासैषणा दोषाः पञ्च निरस्ता अवसेयाः । स एवम्भूतो भिक्षुः परेषामपमानं-परावमदिर्शित्वं परिवर्जयेत् परित्यजेत् न तपोमदं ज्ञानमदञ्च कुर्यादितिभावः ॥४॥
टीकार्थ - अपरिग्रही और अनारम्भी साधु को कैसे वर्तन करना चाहिये-व्यवहार करना चाहिये, रहना चाहिये, यह दिखाने हेतु आगमकार कहते हैं -
गृहस्थ ने परिग्रह तथा आरंभ द्वारा आत्मार्थ-अपने लिये जो चांवल-भात आदि भोजन बनाया हो उसे कृत् अर्थात् दूसरे के द्वारा उसके अपने लिये बनाये गये आहार में से साधु भिक्षा लेने की इच्छा करे । यहां 'कृत आहार' शब्द का ग्रहण सोलह प्रकार के उद्गम दोषों के परिहार का संसूचक है । जो ग्रसित किया जाता है, उगाला जाता है, या खाया जाता है, उसे ग्रास कहते हैं । आहार ग्रास कहलाता है । विवेकशील साधु उद्गम दोष वर्जित आहार का अन्वेषण-गवेषण करे । संयम के परिपालन में कुशल-जागरूक मुनि उसी आहार को लेने की इच्छा करे जो अन्य व्यक्ति किसी आशंसा-प्रत्युपकार की आशा आदि के बिना निःश्रेयस-आत्मकल्याण
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