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__ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् ) अतः यहा भाषा समिति का भी आक्षेप जानना चाहिये-भाषा समिति को भी ले लेना चाहिये आहार करने पर उच्चार-मलत्याग, प्रसरण-मूत्र त्याग के रूप में शौचादि क्रिया भी संभव है । इसलिये यहां प्रतिस्थापना समिति भी आ जाती हैं । यह तीसरा स्थान है । इन तीनों स्थानों में साधु संयम के साथ वर्तन करता हुआ मुक्ति लाभ पर्यन्त उस ओर गतिशील रहे । उत्तरवर्ती श्लोक की क्रिया से संबन्ध जोड़ना चाहिये । तीनों लोकों को यथावत रूप में जानने वाला साधु उत्कर्ष-मान या अहंकार का त्याग कर दे । जिससे आत्मा दध्मात्-दर्प अग्नि से सुलग उठती है, जो आत्मा तथा चारित्र को जलाता है उसे ज्वलन कहा जाता है, वह क्रोध है, उसका भी मुनि परित्याग कर दे। माया को 'ण्हूम' कहा जाता है क्योंकि इसका मध्य-बीच जाना नहीं जा सकता, वह गहन है । (मुनि उसका भी त्याग करे) । आसंसार-संसार पर्यन्त-यावज्जीवन जो प्राणियों के मध्य में रहता है उसे मध्यस्थ कहा जाता है, वह लोभ है क्योंकि वह प्राणियों का कभी साथ नहीं छोड़ता । वे मुनि उसका परित्याग करे। प्रस्तुत गाथा में 'च' शब्द का प्रयोग हुआ है । अत: चार प्रकार की कषायों का जो फल जानता है, वह मुनि सदा के लिये आत्मा से इन्हें पृथक् कर दे।
. यहां एक शंका उपस्थित होती है । अन्यत्र आगमों में सब कहीं क्रोध का वर्णन हुआ । क्षपक श्रेणी में आरूढ़ भगवान संज्वलनात्मक, क्रोध आदि का ही क्षपण-विनाश करते हैं । तब शास्त्रों में प्रसिद्ध इस क्रम को लांघ कर यहां पहले मान का प्रतिपादन क्यों किया गया ।
इसका निराकरण करते हुए कहते हैं कि मान होने पर अवश्य ही क्रोध होता है परन्तु क्रोध होने पर मान होना संभावित भी है और असंभावित भी है । इस बात को ज्ञापित करने के लिये यहां क्रमोल्लंघन हुआ है।
समिए उ सया साहू, पंच सं वर संवुडे । सिएहिं असिए भिक्खू, आमोक्खाय परिव्वएजासि ॥१३॥त्तिबेमि॥ छाया - समितस्तु सदा साधुः पञ्चसंवरसंवृत्तः ।
सितेष्वसितो भिक्षु रामोक्षाय परिव्रजेदिति ॥इति ब्रवीमि॥ अनुवाद - समित-समिति से युक्त पंचसंवर संवृत्त-पांच संवरों से सुरक्षित होता हुआ साधु-भिक्षणशील मुनि गृहस्थों में मूर्छागृद्धि या आसक्ति न रखे । वह मुक्ति पाने तक अनवरत संयम का पालन करे । यह मैं कहता हूँ । श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं, ऐसा मैं बोलता हूँ ।
टीका - तदेवं मूलगुणानुत्तरगुणांस्चोपदाधुना सर्वोपसंहारार्थमाह-तुरवधारणे, पञ्चभिः समितिभिः समित एव साधुः तथा प्राणातिपातादि-पञ्चमहाव्रतोपेतत्वात्पञ्चप्रकारसंवरसंवृत्तः तथा मनोवाक्कायगुप्तिगुप्तः, तथा गृहपाशादिसु सिताः बद्धाः अवसक्ताः गृहस्थास्तेष्वसितः-अनवबद्धस्तेषु मुर्छामकुर्वाण: पंकाधारपंकजवत्तत्कर्मणाऽदिह्यमानो भिक्षुः-भिक्षण शीलो भावभिक्षोः आमोक्षाय अशेषकर्मापगमलक्षणमोक्षार्थमपि समन्तात् ब्रजे: संयमानुष्ठानरतो भवेस्त्वमिति विनेयस्योपदेशः । इतिः अध्ययन समाप्तौ । ब्रवीमीति गणधर एवमाह यथा तीर्थकृतोक्तं तथैवाहं ब्रवीमि, न स्वमनीषिकयेति । गतोऽनुगमः । साम्प्रतं नया स्तेषामयमुपसंहारः ।
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