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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः उसकी वृद्धि-संवर्धन-विकास हो वह उसी प्रकार के कार्य करे । चारित्र आदि का पालन किस प्रकार हो सकता है, यह प्रश्न उपस्थित करते हुए शास्त्रकार बतलाते हैं-चलना या गमन करना चर्या कहलाता है । प्रयोजन होने पर-आवश्यक होने पर साधु कहीं जाये तो वह युग मात्र दृष्टि रखकर चले । सुप्रत्युपेषित-भली भांति देखकर सुप्रमार्जित-भली भाँति प्रमार्जित कर-झाड़कर, आसन पर बैठे । अपनी शैय्या स्थान संस्तारक-बिछौना आदि को भली भांति देखकर, प्रमार्जित कर, उन पर स्थित हों उसी प्रकार खाने पीने में भी वह सम्यक् उपयोग रखे, जागरूक रहे । कहने का अभिप्राय यह है कि साधु ईर्या भाषा, आदान निक्षेप और प्रतिष्ठापन मूलक समितियों में सदैव उपयोग-जागरूकता रखता हुआ उद्गम आदि दोषों से रहित आहार पानी का अन्वेषण करे। भली भांति खोज खबर कर भिक्षा स्वीकार करे ।
। मानः ।
एतेहिं तिहिं ठाणेहिं, संजए सततं मुणी ।।
उक्कसं जलणं णूमं, मज्झत्थं च विगिंचए ॥१२॥ छाया - एतेषु त्रिषु स्थानेषु संयतः सततं मुनिः ।
उत्कर्ष ज्वलनं छादकं मध्यस्थञ्च विवेचयेत् ॥ अनुवाद - मुनि तीनों स्थानों-ईर्या समिति, आदान निक्षेप समिति तथा एषणा समिति में सदैव संयत रहता हुआ-जागरूक या प्रमाद रहित रहता हुआ क्रोध, अहंकार, माया तथा लोभ का परित्याग करे ।
टीका - पुनरपि चारित्रशुद्धयर्थं गुणानधिकृत्याह-एतानि-अनन्तरोक्तानि त्रीणि स्थानानि, तद्यथा ईसमितिरित्येकं स्थानम् आसनं शय्येत्यनेनादानभाण्डमात्रनिक्षेपणा समिति रित्येतच्च द्वितीयं स्थानं भक्तपान मित्यनेनैषणासमितिरूपात्ता भक्तपानार्थञ्च प्रविष्टस्य भाषणसम्भवाद्भाषा समिति राक्षिप्ता । सति चाहारे उच्चार प्रस्रवणादीनां सद्भावात् प्रतिष्ठापनासमितिरप्यायातेत्येतच्च तृतीय स्थानमिति, अत एतेषु त्रिषु स्थानेषु सम्यग्यतः संयत आमोक्षाय परिव्रजेदित्युत्तरश्लोकान्ते क्रियेति । तथा सततम् अनवरतम् मुनिः सम्यक् यथावस्थितजगत्त्रयवेत्ता उत्कृष्यते आत्मा दर्पाध्यातो विधीयतेऽनेनेत्युत्कर्षों मानः तथा आत्मानं चारित्रं वा ज्वलयति दहतीति ज्वलनः क्रोधः तथा 'णूम' मिति गहनं मायेत्यर्थः तस्या अलब्धमध्यत्वादेवमभिधीयते, तथा आसंसारमसुमतां मध्ये अन्तर्भवतीति मध्यस्थो लोभः, च शब्दः समुच्चये, एतान् मानादींश्चतुरोऽपि कषायांस्तद्विपाकाभिज्ञो मुनिः सदा विगिंचएत्ति विवेचयेदात्मनः पृथक् कुर्यादित्यर्थः । ननु चान्यत्रागमे क्रौध आदावुपन्यस्यते, तथा क्षपकश्रेण्या मारूढ़ो भगवान क्रोधादीनेव संज्वलनान् क्षपयति तत्किमर्थमागम प्रसिद्ध क्रम मुल्लङ्घयादौ मानस्योपन्यास इति ? अत्रोच्यते, माने सत्यवश्यं भावी क्रोधः कोधे तु मानः स्याद्वा न वेत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनायान्यथा क्रम करणमिति ॥१२॥
टीकार्थ - शास्त्रकार चारित्र की शुद्धि हेतु अपेक्षित गुणों के संबंध में प्रकाश डालते हुए बतलाते हैं-पूर्वाक्त कहे गये तीन स्थानों में साधु को चाहिये कि वह सदा संयम-अप्रमाद या जागरूक भाव के साथ वर्तन करे । उन तीनों में ईर्यासमिति पहला स्थान है । आसन व शय्या शब्द से आदान एवं भाण्ड निक्षेपण समिति का कथन किया है । यह दूसरा स्थान है । भक्त पान शब्द द्वारा एषणा समिति का प्रतिपादन हुआ है । आहार पानी लेने हेतु गृहस्थ के घर में प्रवृष्ट साधु द्वारा भाषण किया जाना-बोल जाना भी संभव है ।
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