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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः "सव्वेसि पि नयाणं, बहुविधवक्तव्यं निसामित्ता । तं सव्वणयविशुद्धं जं चरणगुणठिओ साहू" ? ॥१३॥८८॥
____ इति सूत्रकृताङ्गे समयारव्यं प्रथमाध्ययनं समाप्तम् । टीकार्थ - शास्त्रकार मूल गुणों एवं उत्तरगुणों का वर्णन कर अब उनका उपसंहार करते हुए प्रतिपादन
करते हैं -
- यहां 'तु' शब्द अवधारणा के अर्थ में है । मुनि सदैव पांचों समितियों से युक्त होकर उनका भली भांति पालन करता हुआ वर्तन करे । वह प्राणातिपात विरमण-हिंसा से वरति, अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का परिपालन करता हुआ, पांच संवरों से गुप्त रहे, आत्मा को सुरक्षित रखे, दोष न आने दे। साथ ही साथ वह अपने मन, वचन, शरीर से भी सदा गुप्त रहे-उन्हें असत् प्रवृत्ति में न जाने देकर आत्मरक्षण करे । पारिवारिक फंदे में फंसे हुए गृहस्थों में वह आसक्त न रहे जैसे पंक-कीचड़ में रहता हुआ भी पंकज-कमल उससे अलिप्त रहता है, उसी तरह गृहस्थों के सम्पर्क में रहता हुआ भी साधु उनमें आसक्त न बने । भिक्षणशील-भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करने वाला भाव भिक्षु जब तक मुक्ति प्राप्त न हो जाय, समस्त कर्मों का क्षय न हो जाय, तब तक संयम के अनुष्ठान में-अनुपालन में संलग्न रहे । यह शिष्य को उद्दिष्ट कर उपदेश है । यहां 'इति' शब्द
आया है । वह अध्याय की समाप्ति का सूचक है । ब्रवीमि क्रिया गणधर के साथ जुड़ी है । वे कहते हैंतीर्थंकर ने जैसा कहा, जैसा मैंने सुना, वही कहता हूँ । स्वमनीषिका-अपनी बुद्धि या मन की इच्छा से नहीं कहता । अनुगम-सिद्धान्त निर्वचन समाप्त हुआ। अब नयों का उपसंहार है । सब नयों की बहुविध वक्तव्यता है-वे अनेक प्रकार उसी को सर्वनय विशुद्ध-सब नयों की दृष्टि से निर्दोष समझना चाहिये । जिन्हें चरणगुण स्थित-सम्यक् ज्ञान और क्रिया में वर्तनशील साधु विशुद्ध मानते हैं ।
श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्र का समय नामक प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ ।
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