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वैतालिय अध्ययन टीकार्थ - सूत्रागम के अनुसार स्खलनारहित आदि गुणों का पालन करते हुए सूत्र का उच्चारण करना चाहिये । आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव, भरत चक्रवर्ती द्वारा तिरस्कत अपने पत्रों को जन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया था, उन्हें उद्दिष्ट कर कहते हैं अथवा सुर, असुर, मनुष्य, उरग-नाग और तिर्यञ्च प्राणियों को संबोधित कर कहते हैं कि-हे भव्य जीवों ! तुम धर्म का बोध प्राप्त करो, जो सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन एवं सम्यक् चारित्र रूप है क्योंकि फिर वैसा अवसर प्राप्त होना दुर्लभ है। मनुष्य योनि, साथ ही साथ कर्म भूमि, आर्य देश और उत्तम कुल में उत्पत्ति-आवास तथा सर्वेन्द्रिय पाटव-सब इन्द्रियों की अपने अपने कार्यों में कुशलतासक्षमता यह सब प्राप्त होना बहुत कठिन है ।
सुनने की उत्सुकता और श्रद्धा का उद्गम आदि देखकर भगवान् अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि तुम लोग सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन, सम्यक्चारित्र का बोध-ज्ञान क्यों नहीं प्राप्त करते । एक बुद्धिमान पुरुष को जिसे पूर्वोक्त सामग्री प्राप्त है, तुच्छ-नगण्य विषयों के सेवन का परित्याग कर सच्चे धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित मोक्ष रूप सच्चा आनंद प्रदान करने वाला धर्म जो इस मनुष्य भव में प्राप्त है, वहां तुच्छ-नगण्य, असुन्दर-वस्तुवृत्त्या दुःखप्रद कामभोग का सेवन करना उचित नहीं है । वैडूर्य आदि मणियों से आपूर्ण समुद्र प्राप्त हो जाय तो फिर निस्तेज, नगण्य कांच के टुकड़े को लेना कहां तक उचित है । कदापि उचित नहीं । जिस पुरुष ने धर्म का आचरण नहीं किया, उसे परलोक में सम्बोधिज्ञान, दर्शन, और चारित्र की प्राप्ति दुर्लभ है । इस गाथा में 'खलु' शब्द अवधारणामूलक है । जो पुरुष सांसारिक भोगों के सेवन में पड़कर एक बार भी धर्म के आचरण से भ्रष्ट हो जाता है तो वह अनन्त काल पर्यन्त इस संसार में पर्यटन करता रहता है । आगमों में ऐसा कहा है । यहां 'हू' शब्द का प्रयोग अवधारणा के अर्थ में है । जो रातें अतिक्रान्त हो गई-चली गई, वे फिर लौटकर वापस नहीं आती जो यौवन-जवानी आदि का समय अतिक्रान्त हो गया-चला गया वह वापिस नहीं लौटता-कहा गया है -
कोटि-करोड़ों भवों-जन्मों के बाद भी जिसका प्राप्त होना असुलभ है ऐसे मनुष्य भव को प्राप्त करके भी हाय ! मैं क्यों प्रमाद कर रहा हूँ । जो आयुष्य व्यतीत हो गया, वह फिर लौटकर नहीं आता, चाहे इन्द्र का ही क्यों न हो । इस जगत में संयम प्रधान-जिसमें संयम की मुख्यता हो, ऐसा धर्मिष्ठ जीवन सुलभ और सुप्राप्य नहीं है । टूटी हुई आयु-आयु के धागे का संधान नहीं किया जा सकता । उसे फिर जोड़ा नहीं जा सकता । इस वृत्त-पद्य का यह अर्थ है।
__संबोध शब्द का अर्थ जागना है । जो पुरुष प्रसुप्त होता है-गाढ़ी नींद में सोया हुआ होता है उसको संबोध-जागरण होता है वह जागता है । निद्रा के उदय होने पर स्वाप-शयन होता है । निद्रा और संबोध के नाम आदि चार निक्षेप होते हैं । इनमें नाम निक्षेप व स्थापना को छोड़कर नियुक्तिकार द्रव्य निक्षेप और भाव निक्षेप को स्पष्ट करते हुए बतलाते हैं । इस गाथा में द्रव्य निद्रा और भाव संबोध व्यक्त किये गये हैं । द्रव्य निद्रा आदि है और भाव प्रबोध अन्त है । अतः आदि और अंत के ग्रहण से उनके मध्य में भाव निद्रा और द्रव्य संबोध का भी ग्रहण करना चाहिये । दर्शनावरणीय. कर्म के उदय से जो निद्रा का अनुभव होता है वह द्रव्य निद्रा है तथा ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की शून्यता-इनसे रहित होना भाव निद्रा है । द्रव्य निद्रा में सुप्त पुरुष का जागृत होना द्रव्य बोध है तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा संयम को स्वायत्त करना भाव बोध हैं, यहां भाव प्रबोध का ही वर्णन है । यह इस गाथा के उत्तरार्द्ध द्वारा भलीभांति प्रकट है । यहां द्रव्य और भाव भेद की अपेक्षा से निद्रा एवं बोध से चार भेद समझ लेने चाहिये ।।
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