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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
टीका - अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्ताभिधित्सयाऽऽह 'उराल' मिति स्थूल मुदारं 'जगत' औदारिकजन्तुग्रामस्य योगं व्यापरं चेष्टामवस्थाविशेषमित्यर्थः, औदारिकशरीरिणो हि जन्तवः प्राक्तनादवस्थाविशेषाद् गर्भकललावुदरुपाद् विपर्य्यासभूतं बालकौमारयौवनादिकमुदारं योगं परि समन्तादयन्ते गच्छन्तिपर्य्ययन्ते, एतदुक्तं भवति - औदारिक शरीरिणो हि मनुष्यादे बालकौमारादिकः काल कृतोऽवस्था विशेषोऽन्यथाचान्यथा च भवन् प्रत्यक्षेणैव लक्ष्यते, न पुनयाहिक् प्राक् ताहगेव सर्वदेति, एवं सर्वेषां स्थावरजङ्गमानामन्यथाऽन्यथा च भवनं द्रष्टव्यमिति । च सर्वे जन्तव आक्रान्ता अभिभूताः दुःखेन शारीरमानसेनासातोदयेन दुःखाक्रान्ताः सन्तोऽन्यथाऽवस्थाभाजो लभ्यन्ते, अतः सर्वेऽपि यथाऽ हिंसिताः भवन्ति तथा विधेयम् । यदिवा सर्वेपि जन्त वः अकान्तम् अनभिमतं दुःखं येषान्तेऽकान्तदुःखाः 'च' शब्दात् प्रियसुखाश्च अतस्तान् सर्वान् न हिंस्यादित्यनेन चान्यथात्वदृष्टान्तो दर्शितो भवत्युपदेशश्च दत्त इति ॥ ९ ॥
टीकार्थ - सांसारिक प्राणी भिन्न भिन्न अवस्थाओं में परिवर्तित होते रहते हैं । इस तथ्य को स्पष्ट करने हेतु आगमकार दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं -
औदारिक शरीर युक्त जीव योग व्यापार या अवस्था विशेष की दृष्टि से उदार - स्थूल होते हैं। वे गर्भ, कलाल, अर्बुद रूप पूर्वतन अवस्थाओं का परित्याग कर बाल्यावस्था, कौमारावस्था तथा यौवनावस्था आदि प्राप्त करते हैं, जो स्थूल हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि औदारिक शरीर युक्त मनुष्य आदि प्राणियों की कालकृतसमय पर विकसित कौमार्य आदि अवस्थाएं भिन्न भिन्न हैं, यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है किन्तु जो पहलेपूर्वजन्म में जैसा होता है वह आगे भी सदा वैसा ही होता रहे, ऐसा दिखाई नहीं देता । इसी प्रकार स्थावर जंगम आदि सभी प्राणी भिन्न भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं, यह समझना चाहिये । संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे सब दैहिक और मानसिक आदि दुःखों से उत्पीडित है तथा वे भिन्न-भिन्न अवस्थाएं प्राप्त करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं । अतएव उन प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिये - जिस प्रकार हिंसा न हो इसका ध्यान रखा जाना चाहिये अथवा सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है तथा सुख प्रिय है । अतएव किसी की भी - सभी की हिंसा नहीं करनी चाहिये। अतएव इस पद्य द्वारा प्राणियों का अन्यथाभाव बतलाया गया है तथा उनकी हिंसा न करने का उपदेश दिया गया I
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एयं खु नाणिनो अहिंसासमयं
छाया
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सारं, जन्न हिंसइ किंचण । चेव, एतावतं वियाणिया ॥ १० ॥
एतत् खलु ज्ञानिनः सारं यन्न हिनस्ति कञ्चन । अहिंसासमताञ्चैवै
तावद्विजानीयात् 11
अनुवाद ज्ञानी - ज्ञान सम्पन्न पुरुष के लिये यही सारयुक्त बात है कि वह किसी की हिंसा न करे । अहिंसा और समता - समत्व भावना, सब को एक समान मानना यही सत्य है, ग्राह्य है ।
टीका किमर्थं सत्त्वान् न हिंस्यादित्याह - शुखधारणे, एतदेव ज्ञानिनो विशिष्ट विवेकवतः सारं न्याय्यं यत् कञ्चन प्राणिजातं स्थावरजङ्गमं वा न हिनस्ति न परितापयति । उपलक्षणश्चैतत् तेन न मृषा ब्रूयान्नादत्तं गृह्णीयान्नाब्रह्माऽऽसेवेत न परिग्रहं परिगृहणीयान्न नक्तं भुञ्जीतेत्येतद्ज्ञानिनः सारं यन्न कर्माश्रवेषु
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