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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
टीकार्थ शास्त्रकार इसका समाधान करते हुए प्रतिपादित करते हैं।
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जो त्रस्त होते हैं, भय प्राप्त करते हैं, वैसा करते प्रतीति का विषय बनते हैं, उन्हें त्रस कहा जाता है । द्वीन्द्रिय आदि प्राणी त्रस श्रेणी में आते हैं। वे त्रसत्वच-पीड़ा का अनुभव करते हैं। जिन प्राणियों के स्थावर नाम कर्म का उदय होता है वे पृथ्वी आदि प्राणी स्थावर श्रेणी में आते हैं। जो मनुष्य आदि प्राणी एक भव में जैसे हैं, आगे के भाव भी वैसे ही होते हैं, उसी रूप में जन्म लेते हैं, लोकवादी ऐसा मानते हैं । यदि इसे सच माना जाय तो दान, अध्ययन- ज्ञानार्जन जप-भगवद्स्मरण तप आदि सभी क्रियाएं अनर्थक या निरर्थक होंगी किन्तु ऐसा नहीं होता । लोकवादी द्वारा भी जीवों को अन्यथात्व- - दूसरे रूप में उत्पन्न होना कहा जाता है । उदाहरणार्थ- ऐसा कहा गया है कि जिस पुरुष का विष्ठासहित दाह होता है, वह पुरुष गीदड़ के रूप में जन्म लेता है । अतः स्थावर एवं जंगल प्राणी स्वकृत कर्मों के अनुसार एक दूसरे के रूप में उत्पन्न हो सकते हैं । त्रस स्थावर हो सकते हैं तथा स्थावर त्रस हो सकते हैं। लोकवादी जो यह कहते हैं कि यह लोक अनन्त तथा नित्य है। इसका समाधान इस प्रकार है
पदार्थों का स्व-स्वजाति की अपेक्षा से नाश नहीं होता । इस दृष्टि से यदि जगत को नित्य कहा जाय तो इसमें कोई हानि नहीं है। ऐसा स्वीकार करने पर तो जैन दर्शन सम्मत परिणामी नित्यत्व का सिद्धान्त
स्वीकृत हो जाता है। यदि ऐसा न मानकर आप पदार्थों को उत्पत्ति रहित, विनाश रहित, स्थिर, एक स्वभावयुक्त स्वीकार करते हुए जगत को नित्य कहते हो, तो यह सत्य नहीं है क्योंकि वहां ऐसा कोई भी पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता, जो उत्पत्ति विनाश रहित हो, स्थिर हो और सदा एक स्वभावयुक्त हो । अतः आपका यह मन्तव्य प्रत्यक्ष प्रमाण से भी बाधित है, असिद्ध है । इस जगत में ऐसा एक भी पदार्थ दिखाई नहीं देता जो प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाले पर्यायों से या अवस्थाओं से युक्त न हो। पर्याय या अवस्था वर्जित पदार्थ आकाश के कुसुम की ज्यों असत् स्वरूप ही अस्तित्वहीन ही सिद्ध होगा । यदि कार्य रूप द्रव्य को, आकाश एवं आत्मा को अविनश्वर कहते हो तो यह भी द्रव्य विशेष की अपेक्षा से सत्य से परे है क्योंकि जगत में सभी पदार्थ उत्पाद-उत्पत्ति, व्यय-विनाश तथा ध्रौव्य-ध्रुवता, स्थिरता या शाश्वतता इन तीनों से युक्त होकर विभागरहित ही अविभक्त रूप में ही प्रवृत्त होते हैं। यदि ऐसा स्वीकार न किया जाय तो आकाश कुसुम की तरह पदार्थ का वस्तुत्व - अस्तित्व ही न रहे । लोकवादियों ने जो यह कहा कि सप्तद्वीपमयी पृथ्वी से युक्त होने के कारण यह लोग सान्त-अन्तसहित हैं, यह भी आपके अज्ञानी मित्र ही स्वीकार कर सकते हैं। जो विचारपूर्वक - विवेकपूर्वक कार्य करते हैं, वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि इसे साबित करने वाला कोई प्रामाण उपलब्ध नहीं है । लोकवादियों ने जो यह प्रतिपादित किया कि पुत्र रहित पुरुष के कोई लोक नहीं है, यह भी बालभाषितअज्ञानी बालक द्वारा कहे हुए की ज्यों अयुक्तियुक्त है । यदि पुत्र के होने मात्र से विशिष्ट लोक प्राप्त हो या पुत्र के द्वारा किये हुये विशिष्ट अनुष्ठान या कार्य ऐसा हो, पुत्र के सद्भाव मात्र से यदि विशिष्ट लोक की प्राप्ति हो तो समस्त लोक कुत्तों और सुअरों से भर जायगा क्योंकि इनके बहुत पुत्र होते हैं । पुत्र द्वारा किये हुए शुभ पुण्यात्मक अनुष्ठान कार्य से विशिष्ट लोक की प्राप्ति होती है, ऐसा स्वीकार करते हो तो यह भी समुचित नहीं है क्योंकि मान लो एक पिता के दो पुत्र हैं। एक ने शुभ-पुण्यात्मक अनुष्ठान किया हो तथा अन्य ने अशुभ- पापयुक्त अनुष्ठान किया हो तो वह पिता क्या पुण्यानुष्ठान करने वाले पुत्र के कारण उत्तम लोक में जायगा अथवा पापनुष्ठान करने वाले पुत्र के कारण अधम लोक में जायगा । साथ ही साथ ऐसा भी होगा कि उस पिता ने स्वयं जो कर्म किये हों, वे तो बिल्कुल निष्फल हो जायेंगे । इसलिये पुत्रहीन के लिये
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