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। श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् कोई लोक नहीं है-यह कथन अज्ञानपूर्ण है । यह जो कहा गया कि कुत्ते यक्ष है यह तो स्पष्ट ही युक्ति विरुद्ध है, सुनने योग्य भी नहीं है । लोकवादी जो ऐसा कहते हैं कि तीर्थंकर अपरिमाण-परिमाण रहित या अपरिमित पदार्थों को जानते हैं किन्तु वे सर्वज्ञ-सब कुछ जानने वाले नहीं है । यह भी यथार्थ-सत्य नहीं है । यदि अपरिमित पदार्थदर्शी होते हुए भी जो पुरुष सर्वज्ञ नहीं होता वह हेय-छोड़ने योग्य और उपादेय- ग्रहण करने योग्य स्वीकार करने योग्य, पदार्थों के सम्बन्ध में उपदेश देने में कभी समर्थ नहीं हो सकता, अतः बुद्धिमान पुरुषों द्वारा वह आदरणीय नहीं है । वैसे पुरुष का कीड़ों की संख्या का ज्ञान भी फिर उपयोगी ही होगा क्योंकि उसके बारे में किसी बुद्धिमान पुरुष द्वारा की गई. आशंका कि जैसे वह कीड़ों के संबंध में नहीं जानता, उसी प्रकार अन्य पदार्थों के संबंध में भी नहीं जानता होगा । अतः उसके द्वारा हेय-त्यागने योग्य, उपादेय-ग्रहण करने योग्य विषय में कही हुई बात में कोई प्रवृत नहीं हो सकता क्योंकि उसका ज्ञान अयथायथ है अतः सर्वज्ञ की मान्यता आवश्यक है ।
यह तो प्रतिपादित किया गया कि ब्रह्मा सुप्तावस्था में कुछ नहीं जानते, वे जागृतावस्था में ही जानते हैं । यह बात भी कोई विलक्षण नहीं है क्योंकि सभी प्राणी ऐसे ही होते हैं क्योंकि वे सुप्तावस्था में कुछ नहीं जानते । वे जागृत अवस्था में-जब वे जगे हुए होते हैं, तभी सभी जानते हैं। लोकवादियों ने जो यह बतलाया कि ब्रह्मा के शयन करने पर जगत का प्रलय हो जाता है और उनके जागृत होने पर उदय होता है, यह भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि इस संबंध में पहले विवेचन किया गया है । अत: यहां उसका विस्तार करना आवश्यक नहीं है । वास्तव में इस जगत का कभी भी अत्यन्त विनाश नहीं होता, न कभी अत्यन्त उत्पाद ही होता है। यह जगत कभी भी अन्यथा-किसी और तरह का नहीं होता । ऐसा कथन है । यह जगत् अनन्त है इत्यादि लोकवादियों के द्वारा कही हुई बातों को छोड़कर आगमकार पदार्थ के सही स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए प्रस्तुत गाथा के उत्तरार्द्ध में कहते हैं।
इस जगत में जो भी त्रस, स्थावर-चर-अचर प्राणी हैं, वे स्व स्व-अपने अपने द्वारा किये गये कर्मों का फल भोगने के लिये अवश्य ही एक पर्याय से दूसरे पर्याय में जाते हैं । यह सुनिश्चित है-आवश्यक है । त्रस प्राणी अपने कर्म भोग के लिये स्थावर पर्याय में जाते हैं । स्थावर प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं तथा स्थावर प्राणी त्रस पर्याय में जाते हैं-त्रस प्राणियों के रूप में उत्पन्न होते हैं, किन्तु त्रस प्राणी आगामी जन्म में वस के रूप में जन्म लेते हैं तथा स्थावर प्राणी स्थावर के रूप में ही पैदा होते हैं अर्थात् जो प्राणी इस जन्म में जैसा होता है वे अगले जन्म में भी वैसा ही उत्पन्न होता है, यह नियम नहीं है।
उरालं जगतो जोगं, विवज्जासं पलिंतिय ।
सव्वे अक्कंतदुक्खा य, अओ सव्वे अहिंसिया ॥९॥ छाया - उदारं जगतो योगं विपर्यासं पल्ययन्ते ।
सर्वेऽकान्तदुःखाश्च, अतः सर्वेऽहिंसिता ॥ अनुवाद - जो औदारिक प्राणी हैं उनकी अवस्थिति स्थूलता लिये हुए हैं । सभी प्राणी एक अवस्था का परित्याग कर दूसरी अवस्था में जाते रहते हैं । सभी प्राणी अकान्त दुःख है-दुःख को अप्रिय मानते हैं। इसलिये किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये ।
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