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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् कि वे अन्य मतवादी ऐसे हैं । 'कृत' शब्द कर्तव्य अथवा सावद्य-सपाप अनुष्ठान या अभिप्राय लिये हुए है। जो मुख्य रूप से वैसा सावध अनुष्ठान करतेहैं वे भी 'कृत्य' कहे जाते हैं । यों यह 'कृत्य' शब्द गृहस्थों का सूचक है । ये परमतवादी गृहस्थों को संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ मूलक-क्रमशः क्रियोपक्रियोमूलक हिंसापूर्ण कार्यों का उपदेश देते हैं । इसलिये वे कृत्योपदेशक कहे गये हैं । यद्यपि वे बाह्यरूपेण प्रव्रज्या धारण किये हुए होते, किन्तु वास्तव में गृहस्थों से भिन्न नहीं होते, वरन् उनके सदृश ही उनकी स्थिति होती है । तथा वे पंचशूना-चुल्ली-चूल्हा, पेसणी-चक्की, उपस्कर-झाडू, कंडनी-ऊंखली तथा उपकुम्भ-जल स्थान-इन द्वारा जो मनुस्मृति में गृहस्थों के घर मेंपांच बूचड़खाने बतलाये गये हैं, हिंसा करते हैं।
तं च भिक्खू परिन्नान, वियं तेसु ण मुच्छए ।
अणुक्कसे अप्पलीणे मज्झेण मुणि जावए ॥२॥ छाया - तञ्च भिक्षुः परिज्ञाय विद्वांस्तेषु न मूछेत् ।
__ अनुत्कर्षोऽप्रलीनः मध्येन मुनि र्यापयेत् ॥ अनुवाद - विद्वान्-ज्ञानवान् भिक्षु अन्य मतवादियों को जानकर-उनके स्वरूप को समझकर उनमें मूर्छा न करे, उस ओर आसक्त न बने । किसी भी तरह अपने ज्ञान व संयम आदि का मद-अहंकार न करे। औरों-अन्य मतवादियों के साथ संसर्ग-सम्पर्क न करे तथा तटस्थ वृत्ति से रहे ।
टीका - एवम्भूतेषु च तीर्थिकेषु सत्सु भिक्षुणा यत्कर्तव्यं तद्दर्शयितुमाह - तं पाखण्डिकलोकमसदुपदेशदानाभिरतं 'परिज्ञाय' सम्यगवगभ्य यथैते मिथ्यात्वोपहतान्तरात्मनः सद्विवेकशून्याः नात्मने हितायालं नान्यस्मै इत्येवं पर्यालोच्य, भावभिक्षुः संयतो 'विद्वान्' विदितवेद्यः तेषु 'न मूर्छयेत्' न गायं विदध्यात्, न तैः सह संपर्कमपि कुयादित्यर्थः। किं पुनः कर्तव्य मिति पश्चार्द्धन दर्शयदि-अनुत्कर्षवानिति' अष्टमदस्थानानामन्यतमेनाप्युत्सेकमकुर्वन् तथा अप्रलीन: असंबद्धस्तीर्तिकेषु गृहस्थेषु पार्श्वस्थादिषु वा संश्लेषमकुर्वन् मध्येन रागद्वेषयोरन्तरालेन संचरन् मुनिः जगत् त्रयवेदी यापयेद् आत्मनं वर्तयेत् । इदमुक्तम्भवति-तीर्थिकादिभिः सह सत्यपि कथञ्चित्सम्बन्धे त्यक्ताहङ्कारेण तथा भावतस्तेष्वप्रलीयमानेनारक्तद्विष्टेन तेषु निन्दामात्मनश्च प्रशंसां परिहरता मुनिनाऽऽत्मा यापयितव्य इति ॥२॥
____टीकार्थ - इस प्रकार के अन्य मतवादियों के प्रति साधु का जो कर्तव्य है, उसे प्रकट करने के लिये आगमकार बतलाते हैं -
__पाखण्डी-धर्मविराधक, मतवादी असत् का-मिथ्या सिद्धान्तों का उपदेश देने में अनुरत हैं । इन मिथ्या दृष्टियों का चित्त मिथ्यात्व से मलिन-दूषित है तथा सद्विवेक-सद्ज्ञान से रहित है । इसलिये ये अपना तथा औरों का हित साधने में कल्याण करने में अक्षम है । यह जानकर विद्वान-वस्तुतत्त्ववेत्ता, सत्य का यथार्थ स्वरूप जानने वाला संयमरत भाव भिक्षु-भिक्षु धर्म का सांगोपांग परिपालन करने वाला साधक उन अन्य मतवादियों के साथ कोई आसक्ति न रखे, उनसे सम्पर्क भी न करे ।
___ उनके प्रति एक भावभिक्षु-मुनि का कैसा व्यवहार हो, इस गाथा के उत्तरार्द्ध में प्रतिपादित किया गया
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