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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्। विपरीत स्वरूप बतलाते हैं, मिथ्या अर्थ प्रतिपादित करते हैं । उनके समान ही लोकवाद भी विपरीत अर्थअसत्य तत्त्व प्रतिपादित करता है । वह उन्हीं का अनुगामी है-उन्हीं का अनुगमन या अनुसरण करता है ।
अणंते निइए लोए सासए, ण विणस्सती ।
अंतवं णिइए लोए इति धीरोऽतिपासइ ॥६॥ छाया - अनन्तो नित्यो लोकः शाश्वतो न विनश्यति ।
अन्तवान्नित्यो लोक इति धीरोऽतिपश्यति ॥ अनुवाद - यह लोक अनन्त-अन्तरहित, नित्य-नाशरहित तथा शाश्वत-सदा रहने वाला है । यह कभी विनष्ट नहीं होता । यह लोक अन्तवान-शांत या सीमित और नित्य है । ऐसा कुछ दुस्साहसी मतवादी देखते हैं, मानते हैं।
___टीका - तमेव विपर्य्यस्तबुद्धिरचितं लोकवादं दर्शयितुमाह-नास्यान्तोऽस्तीत्यनन्तः न निरन्वयनाशेन नश्यतीत्युक्तं भवतीति, तथाहि यो यादृगिह भवे स तादृगेव परभवेऽप्युत्पद्यते, पुरुषः पुरुष एवाङ्गना अङ्गनैवेत्यादि यदि वा अनन्तोऽपरिमितो निरवधिक इति यावत् तथा नित्य इति अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावो लोक इति तथा शश्वद्भवतीति शाश्वतोद्वयणुकादि कार्य्यद्रव्यापेक्षयाऽशश्वद्भवन्नपि न कारणद्रव्यं परमाणुत्वं परित्यजतीति तथा न विनश्यतीति दिगात्माकाशाद्यपेक्षया । तथाऽन्तोऽस्यास्तीत्यन्तवान् लोक : 'सप्तद्वीपा वसुन्धरे' ति परिमाणोक्तेः, सच तादृक परिमाणो नित्य इत्येवं धीरो कश्चित्साहसिकोऽन्यथाभूतार्थ प्रतिपादनाद् व्यासादिरिवाति पश्यतीत्यतिपश्यति । तदेवंभूतमनेकभेद भिन्न लोकवादं निशामयेदिति प्रकृतेन सम्बन्धः । तथा "अपुत्रस्य न सन्ति लोकाः ब्राह्मणाः देवाः" श्वानो यक्षाः गोभिर्हतस्य गोध्नस्य वा न सन्ति लोका" इत्येवमादिकं नियुक्तिकं लोकवादं निशामयेदिति ॥६॥
टीकार्थ - विपरीत बुद्धियुक्त वादियों द्वारा रचित लोकवाद का दिग्दर्शन कराने हेतु आगमकार कहते हैं, जिसका कभी अन्त नहीं होता, उसे अनन्त कहा जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि इस लोक का निरन्वयनाश नहीं होता जो इस भव में जैसा है पर भव में भी वह वैसा ही उत्पन्न होता है जैसे पुरुष पुरुष के रूप में तथा अङ्गना-स्त्री स्त्री के रूप में ही होती है अथवा यह लोक अनन्त अर्थात् अन्तया परिमाण रहित है, अवधि रहित है । यह लोक नित्य अर्थात् उत्पत्ति विनाश रहित है, स्थिर है तथा एक स्वभाव-सदा एक स्वभाव में रहने वाला है एवं यह सदा विद्यमान रहता है, इसलिये शाश्वत है । यह लोक द्वयणुक दो परमाणुओं के मिलित रूप आदि कार्य द्रव्य की अपेक्षा से यद्यपि शाश्वत नहीं है किन्तु इसका कारण द्रव्य परमाणु कभी भी अपने परमाणुत्त्व को नहीं छोड़ता। वह सदैव परमाणु के रूप में विद्यमान रहता है । अत: यह लोक शाश्वत है । इस लोक का कभी नाश नहीं होता । यह बात दिक्-दिशा, आत्मा आदि की अपेक्षा से कही गई है । अन्तवान उसे कहा जाता है-जिसका अन्त होता है या सीमा होती है । यह लोक अन्तवान है क्योंकि लोक स्थित पृथ्वी सप्त द्वीपा-सात द्वीप युक्त है। पौराणिक ऐसा परिमाण बतलाते हैं, एतत् परिमाण युक्त लोक नित्य है। इस प्रकार पदार्थों का मिथ्या स्वरूप निरूपित करने के कारण व्यास सद्दश पौराणिकों को धीर या दुस्साहसी कहा जाना संगत है । लोकवाद के मन्तव्यों को सुनना चाहिये । प्रस्तुत गाथा के साथ यह जोड़े ।
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