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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः परसमय वक्तव्यता मूलकथा - जिसमें स्वसमय-जैन सिद्धान्त, पर समय-जैनेत्तर तीर्थिकों के सिद्धान्तों की चर्चा रही है, वही इस उद्देशक में भी प्रतिपादित की जाती है, अथवा अनन्तर-आगे के उद्देशक में अन्य मतवादियों के कुत्सित, दूषित-दोषपूर्ण आचार का वर्णन किया है । यहां भी उस संदर्भ में विवेचन है । इन संबंधों से युक्त इस उद्देशक में उपक्रम आदि चार अनुयोगों का वर्णन करते हुए सूत्रानुगम से-सूत्रोच्चारण या सूत्र पाठ की विधि के अनुरूप बोलना चाहिये । वह सूत्र इस प्रकार है-इस सूत्र का पीछे के सूत्र के साथ यह संबंध है । पीछे के सूत्र में कहा गया है कि पर तीर्थिक असुर स्थानों में-योनियों में उत्पन्न होते हैं। वे किल्विषिक देव होते हैं । किल्विषिक-तुच्छ क्रीडा कलाप युक्त । इसी विषय को एक प्रश्न उठाते हुए आगे बढ़ाते हैं कि वे ऐसे क्यों होते हैं ? उसका समाधान-निराकरण करते हुए कहते हैं कि वे परतीर्थिक परीषह-अपने आप उत्पन्न होने वाले कष्ट तथा उपसर्ग-दूसरों द्वारा दिये जाने वाले कष्ट या यातना से पराजित होते हैं। पिछले सूत्र के साथ इसका यह संबंध है । पहले पहल यह भी कहा गया कि बोध-ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और वैसा करके कर्मों के बन्धन को तोड़ना चाहिये-नष्ट करना चाहिये । अतः यहां यह भी जानना चाहिये कि पहले चर्चित पंचभौतिक आदि वादों में विश्वास करने वाले तथा गौशालक मतानुयायी नियतिवादी आदि अन्य तीर्थिक परीषह, उपसर्ग, काम, क्रोध, लोभ, मान, मोह तथा मद-अहंकार आदि षड् रिपुओं से-छः शत्रुओं से पराजित हैं । इसी प्रकार दूसरे सूत्रों के साथ भी संबंध समझना चाहिये यों अनन्तर सूत्रों से सम्बद्ध या जुड़े हुए इस सूत्र का विस्तार से यहां विवेचन किया जाता है ।
पंचभूतवादी, एकात्मवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी, कृतवादी, त्रैराशिक, गौशालक मतानुयायी-नियतिवादीये सभी राग, द्वेष आदि दुषित भाव, शब्द आदि इंद्रिय विषय तथा प्रबल महामोहजनित अज्ञान द्वारा पराजित हैं । गाथा में 'भो' शब्द शिष्य को संबोधित करने के लिये आया है । यथा-हे शिष्य ! तुम्हें यह जानना चाहिये कि ये परमतावलम्बी असत्-सत्य के प्रतिकूल उपदेश देने में प्रवृत्त है । इसलिये वे दूसरों का त्राण करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं, ऐसा क्यों कहते हैं ? ऐसा इसलिये कहते हैं कि ये मतवादी बालकों की ज्यों ज्ञानशून्य हैं । जैसे शिशु-भोले अज्ञानी बालक सत्, असत् के विवेक वैकल्प-ज्ञान शून्यता के कारण सब कुछ कह डालते हैं । उन्हें ऐसा करते सत् असत् या उचित अनुचित का जरा भी विवेक नहीं रहता । इसी प्रकार ये मतवादी अज्ञानी हैं । खुद अज्ञानी होते हुए दूसरों को मोह मूढ़ बनाते हैं । इतना ही नहीं अज्ञानी होकर भी अपने को पंडित या ज्ञानी बताने का दंभ करते हैं ।
कहीं-कहीं 'जत्थ बालोऽवसीयई' यत्र वालो अवसीदति' ऐसा पाठ है । इसका अभिप्राय यह है कि जैसे अज्ञान में संलग्न-अज्ञानयुक्त बालक अवसन्न होता है-दुःखित होता है, पीड़ित होता है, वैसे ही ये अज्ञानवर्ती मतवादी क्लेशाविष्ट होते हैं । वे किसी को त्राण या सहारा नहीं दे सकते । किसी की रक्षा नहीं कर सकते।
ये अन्य मतावलम्बी जो सत्य के प्रतिकूल आचरण करते हैं उस संबंध में इस गाथा के उत्तरार्द्ध में प्रतिपादन किया गया है । 'णं' शब्द यहां वाक्यालंकार या वाक्यसज्जा के अर्थ में है । ये अन्य वादी धन्यधान्य, बंधु बान्धवादी सम्बन्धियों का परित्याग कर कहते हैं-हमने आसक्ति छोड़ दी है । पारिवारिक आदि किसी के साथ हमारा लगाव नहीं है । हमने प्रव्रज्या स्वीकार कर ली है । ऐसा कहते हुए वे मोक्ष पाने की दिशा में उद्यतता दिखाते हैं किन्तु वे परिग्रह तथा आरंभ समारम्भ मूलक हिंसा में संलग्न रहने वाले गृहीजनों के कर्तव्य का अर्थात् पकाना, पकवाना, कूटना, पीसना आदि जीवों के लिये विनाशकारी कर्मों का उपदेश देते हैं । इस गाथा में 'सिया' पद आर्ष है उसे बहुवचन मानकर व्याख्या की जाती है । इसका अभिप्राय यह है
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