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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः असंवुडा अणादीयं भमिहिंति पुणोपुणो ।
कप्पकालमुवजति ठाणा आसुरकिव्विसिया ॥१६॥त्तिबेमि॥ छाया - असंवृता अनादिकं भ्रमिष्यन्ति पुनः पुनः ।
कल्पकालमुत्पद्यन्ते स्थाना आसुरकिल्विषिका ।इति ब्रवीमि॥ अनुवाद - वे असंवृत-संवर रहित, इंद्रिय विजय रहित अर्थात् इन्द्रियों के वश में विद्यमान अन्य तीर्थिक पुनः पुनः संसार में भ्रमण करते रहते हैं । वे बाल तप-अज्ञानपूर्ण तप के प्रभाव से बहुत समय तक असुर योनियों में उत्पन्न होते हैं, किल्विषिक देव होते हैं।
_____टीका- साम्प्रतमेतेषामनर्थप्रदर्शनपुरःसरं दूषणमिधित्सयाऽऽह-ते हि पाखंडिकाःमोक्षाभिसन्धिनासमुत्थिता अपि असंवृता इन्द्रिय नो इन्द्रियैरसंयताइहाप्यस्माकं लाभ. इन्द्रियानुरोधेन सर्वविषयोपभोगाद् अमुत्र मुक्त्यवाप्तेः तदेवं मुग्धजनं प्रतारयन्तोऽनादिसंसारकान्तारं भ्रमिष्यन्ति पर्याटिष्यन्ति स्वदुश्चरितोपात्तकर्मपाशावशापि (पाशि) ताः पौनः पुण्येन नरकादियातनास्थानेषुत्पद्यन्ते । तथाहि-नेन्द्रियैरनियमितै रशेषद्वन्द्वप्रच्युतिलक्षणा सिद्धिरवाप्यते । याऽप्यणिमाद्यष्टगुण लक्षणैहिकी सिद्धिरभिधीयते साऽपि मुग्धजनप्रतारणाय दम्भकल्पैवेति । याऽपि च तेषां बालतपोऽनुष्ठानादिना स्वर्गावाप्तिः साऽप्येवंप्राया भवतीति दर्शयति । कल्पकालं प्रभूतकालम् उत्पद्यन्ते संभवन्ति आसुरा:-असुर स्थानोत्पन्ना नागकुमारादयः तत्राऽपि न प्रधाना किन्तर्हि ? किल्विषिकाः अधमाः प्रेष्यभूता अल्पर्धयोऽल्पभोगाः स्वल्पायुः सामर्थ्याधुपेताश्च भवन्तीति । इति उद्देशक परिसमाप्माप्त्यर्थे, व्रवीमीति पूर्ववत १६/७५ इति समयाख्याध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः समाप्तः ।
__टीकार्थ - आगमकार अब उन-अन्य तीर्थकों के सिद्धान्तों की निरर्थकता का दिग्दर्शन कराते हुए उन्हें दोषयुक्त प्रतिपादन करने हेतु कहते हैं -
वे पाखण्डी मोक्ष मार्ग में उद्यत होकर भी असंवृत-संवर रहित होते हैं । इन्द्रिय और मन को वश में नहीं रख पाते, असंयत होते हैं । वे ऐसा मानते हैं कि इस लोक में भी हमें लाभ है, सुख है, क्योंकि इन्द्रियों के अनुरोध से-इन्द्रियों की प्रेरणा से, सब विषयों का उपभोग करने से परलोक में मोक्ष प्राप्त होता है । वे यो मुग्ध जनों को-भोले भाले लोगों को प्रतारित करते हुए-ठगते हुए इस अनादि संसार रूपी वन में भटकते रहते हैं । वे अपने दुष्चरित्र-दुराचरण के कारण कर्मों के फंदे में बंधकर बार-बार नरक आदि कष्ट पूर्ण स्थानों में पैदा होते हैं क्योंकि इंद्रियों को नियमित-नियंत्रित किये बिना मोक्ष-जहां समस्त दुःख निवृत्त हो जाते हैं, प्राप्त नहीं होता । वे जो अणिमा आदि अष्ट विध ऐहिक-इस संसार से संबद्ध सिद्धियों का जो वर्णन करते हैं, वे भी भोले भाले-सीधे लोगों को प्रतारित करने हेतु दंभ मात्र ही है । उन विपरीत धर्माचरण में लग्न पुरुषों को असम्यक् तप के प्रभाव से जो स्वर्ग की प्राप्ति होती है, उसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं कि-वे बहुत समय तक नागकुमार आदिअसुर स्थानों में अल्प ऋद्धि, अल्प आयु, अल्प शक्ति युक्त अधम-निम्न कोटिक प्रेष्य भूत-सेवक वृत्ति युक्त देव के रूप में पैदा होते हैं । मुख्य देव के रूप में नहीं होते । इति शब्द उद्देशक की पूर्ति के अर्थ में है । ब्रवीमि-बोलता हूँ-यह शब्द पहले की ज्यों है-इसका आशय वही है जो पहले वर्णित हुआ है।
समय अध्ययन का तीसरा उद्देशक समाप्त हुआ ।
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