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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः तीनों लोकों को जानने वाला, आठ प्रकार के मदस्थानों में से किसी एक का भी सेवन न करने वाला तविरहित रहने वाला, अन्यमतवादी गृहस्थ एवं पार्श्वस्थ आदि के साथ सम्बन्ध न रखे। तटस्थवृत्ति केसाथ रागद्वेष रहित होकर व्यवहार करे । इसका तात्पर्य यह है कि परमतवादी आदि किसी के साथ यदि कभी संयोगवश संबंध हो जाय तो साधु अहंकार का परित्याग कर उनके साथ भावात्मक दृष्टि से संबंध न रखता हुआ राग या द्वेष न करता हुआ अपने गुणों की प्रशस्ति और उनकी निन्दा न करता हुआ समय को बिताये, व्यवहार करे ।
सपरिग्गहा य सारंभा, इहमेगेसि माहियं ।
अपरिग्गहा अणा रंभा, भिक्खू ताणं परिव्वए ॥३॥ छाया - सपरिग्रहाश्च सारम्भा इहैकेषामाख्यातम् ।
अपरिग्रहाननारम्भान् भिक्षु स्त्राणं परिव्रजेत् ॥ अनुवाद - कई अन्य मतवादी कहते हैं कि सपरिग्रह-परिग्रह रखने वाले तथा सारम्भ-हिंसादि आरंभ समारम्भ करने वाले जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं किन्तु भावभिक्षु उन्हीं से त्राण पाये-उन्हीं की शरण में जाये, जो परिग्रह रहित और आरम्भ समारम्भ हिंसादि से सर्वथा दूर हो ।
- टीका - किमिति ते तीर्थिकास्राणाय न भवन्तीति दर्शयितुमाह - सह परिग्रहेण धनधान्यद्विपद चतुष्पदादिना वर्तन्ते तदभावेऽपि शरीरोपकरणादौ मूर्छावन्तः सपरिग्रहाः, तथा सहारम्भेण जीवोपमर्दादिकारिणा व्यापारेण वर्तन्त इति तदभावेऽप्यौदेशिकादिभोजित्वात् सारम्भाः-तीर्थिकादयः, सपरिग्रहारम्भकत्वैनैव च मोक्षमार्ग प्रसाधयन्तीति दर्शयति-इह परलोकचिन्तायाम् एकेषांकेषाञ्चिद् आख्यातंभाषितं, यथा किमनया शिरस्तुण्डमुण्डनादिकया क्रियया ? परं गुरोरनुग्रहात् परमाक्षरावाप्ति स्तद्दीक्षावाप्ति ; यदि भवति ततो मोक्षो भवतीत्येवं भाषमाणास्ते न त्राणाय भवन्तीति । ये तु त्रातुं समर्थास्तान् पश्चाद्धेन दर्शयति-अपरिग्रहाः न विद्यन्ते धर्मोपकारणादृते शरीरोपभोगाय स्वल्पोऽपि परिग्रहो यषां ते अपरिग्रहाः, न विद्यते सावध आरम्भो येषां तेऽनारम्भाः ते चैवंभूताः कर्मलघवः स्वयं यानपात्रकल्पाः संसार महोदधेर्जन्तूत्तारणसमर्थास्तान् भिक्षुः भिक्षणशील उद्देशिकाद्यपरिभोजी त्राणं शरणं परि-समन्ताद् व्रजेद् गच्छेदिति ॥३॥
टीकार्थ - अन्य मतवादी अपना तथा दूसरों का रक्षण क्यों नहीं कर सकते । इसका दिग्दर्शन कराने हेतु आगमकार कहते हैं -
जो धन, धान्य, द्विपद-दो पैरों वाले प्राणी, चतुष्पद-चार पैरों वाले प्राणी आदि के रूप परिग्रह रखते है वे सपरिग्रही कहलाते हैं । धन धान्य आदि बाह्य सम्पत्ति के न होने के बावजूद जो देह और उपकरणादिक में मूर्छा-आसक्ति रखते हैं वे भी सपरिग्रही हैं । जो जीवों के उपमर्द-विनाश या हिंसा आदि कार्य करते हैं वे सारम्भ कहलाते हैं । जो जीवों के विनाश से सम्बद्ध कार्य न करने पर भी औदेशिक-अपने लिये बनाए हुए आहार का सेवन करते हैं, वे भी सारम्भ है । इतर मतवादियों का मन्तव्य है कि सपरिग्रह और आरम्भ व्यक्ति भी. मोक्ष मार्ग की आराधना करते हैं । आगमकार इस संबंध में बतलाते हैं -
परलोक के संबंध में किन्हीं की यह मान्यता है कि मस्तक और दाढ़ी मूंछ मुंडाने की क्या आवश्यकता है । गुरु की कृपा से परम् अक्षर की अवाप्ति-उपलब्धि तथा दीक्षा की प्राप्ति हो जाने पर मोक्ष प्राप्त हो जाता
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