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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् - सिद्धायते अरोगा य, इहमेगेसिमाहियं ।
सिद्धिमेव पुरोकाउं, सासए गढिया नरा ॥१५॥ छाया - सिद्धाश्चतेऽरोगाश्च इहैकेषामाख्यातम् । ।
सिद्धिमेव पुरस्कृत्य, स्वाशये ग्रथिताः नराः ॥ अनुवाद - अन्य तीर्थिक सिद्धि को प्राप्त होना अपने सिद्धान्तों में ग्रथित-गूंथा हुआ मानते हैं- उन्हीं से वह निकलती है या प्राप्त होती है । वे कहते हैं कि हमारे सिद्धान्तों के अनुसरण से जो सिद्धि प्राप्त करते हैं, वे अरोग-रोग रहित या दुःख रहित होते हैं ।
___ टीका - तदेवमिहैवास्मदुक्तानुष्ठायिनोऽष्टगुणैस्वयंलक्षणा, सिद्धिर्भवत्यमुत्र चाशेष द्वन्द्वोपरमलक्षणा सिद्धिर्भवतीति दर्शयितुमाह - ये ह्यस्मदुक्त मनुष्ठानं सम्यगनुतिष्ठन्ति तेऽस्मिन् जन्मन्यष्टगुणैश्वर्य्यरूपां सिद्धिमासाद्य पुनर्विशिष्ट समाधियोगेन शरीरत्यागं कृत्वासिद्धाश्च अशेषद्वन्द्वरहिता अरोगा भवन्ति, अरोगग्रहणञ्चोपलक्षणम् अनेक शारीरमानसद्वन्द्वैर्नस्पृश्यन्ते शरीरमनसोरभावादिति । एवम् इह अस्मिन् लोके सिद्धिविचारे वा एकेषां शैवादीनामिदमाख्यातं, ते च शैवादयः सिद्धिमेव पुरस्कृत्य मुक्तिमेवाङ्गीकृत्य स्वकीये आशये स्वदर्शनाभ्युपगमे ग्रथिताः संबद्धा अध्युपपन्नास्तदनुकूला: युक्ती: प्रतिपादयन्ति । नराः इव नराः प्राकृतपुरुषाःशास्त्रावबोधविकला: स्वाभिप्रेतार्थसाधनाय युक्तीः प्रतिपादयन्ति एवं तेऽपि पण्डितम्मन्याः परमार्थमजानानाः स्वाग्रहप्रसाधिकाः युक्ती रुद्घोषयन्तीति, तथा चोक्तम्-आग्रही वत निनीषति युक्तिं, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत तत्र मतिरेति निवेशम् ॥१॥१५॥
टीकार्थ - वे अन्य तीर्थिक इस प्रकार कहते हैं कि-हमारे कथन का-सिद्धान्तों का जो अनुष्ठानअनुपालन करते हैं उनको इसी जन्म में आठ गुणात्मक ऐश्वर्यमूलक सिद्धि उपलब्ध होती है तथा परलोक में मोक्ष प्राप्त होता है । जहां सब प्रकार के द्वन्द्व-प्रपंच, झंझट दूर हो जाते हैं । आगमकार इसी बात का दिग्दर्शन कराते हैं
वे अन्यमतवादी निरुपित करते हैं कि जो व्यक्ति हमारे दर्शनमें बताए हुए नियमों का आचारों का भली भांति पालन करते हैं वे इसी जन्म में अष्ट गुणात्मक ऐश्वर्यमूलक सिद्धि प्राप्त करते हैं । फिर विशिष्ट समाधि योग को साधकर, देह का परित्याग कर सिद्धत्त्व प्राप्त कर लेते हैं । वे इस प्रकार समग्र द्वन्द्व रहित-क्लेश रहित, अरोग-दुःख रहित हो जाते हैं । यहां 'अरोग' शब्द उपलक्षण है, सांकेतिक है । तात्पर्य यह है कि उन लोगों को अनेक प्रकार के दैहिक और मानसिक दुःख स्पर्श नहीं करते क्योंकि उनके देह और मन का अभाव हो जाता है अर्थात् वे देह से और मन से अतीत हो जाते हैं । शैव आदि इस प्रकार सिद्धि के संबंध में अपना मन्तव्य बताते हैं । वे सिद्धि को आगे रखते हैं, उसी को मुख्य रूप में प्रस्तुत करते हैं, अपने सिद्धान्तों में आसत्ति लिये रहते हैं और तदनकल यक्तियों द्वारा उनका निरूपण करते हैं । जैसे शास्त्र ज्ञान से श सामान्य पुरुष अपने चाहे हुए प्रयोजन को साधने के लिये युक्तियों का प्रयोग करता है, उसी तरह वे शैव आदि जिन्हें परमार्थ का बोध नहीं है, जो अपने को पंडित या ज्ञानी मानते हैं, वे अपने आग्रहपूर्ण मन्तव्य को सिद्ध करने हेतु युक्तियां लगाते हैं। कहा गया है-एक आग्रही-अपनी बद्धमूल धारणा पर अडा हुआ पुरुष अपनी मान्यता के अनुसार युक्ति को ले जाना चाहता है, उसे वैसा मोड़ देना चाहता है, किन्तु वह पुरुष जिसे कोई पक्षपात या आग्रह नहीं है वह उसी अर्थ-अभिप्राय या तत्त्व को जो युक्ति युक्त होता है, स्वीकार करता है।
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