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| श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् अनुवाद - वह मृग अज्ञानी होने के कारण बुद्धि द्वारा अपना हित-अहित न जानने के कारण अपना अहित-हानि नुकसान करता रहता है । वह उन विषम-ऊंचे नीचे, उबड़-खाबड़ स्थानों में जहां फंदे जाल आदि लगे होते हैं, चला जाता है । उसका पैर बंधन में जकड़ जाता है और वह नष्ट हो जाता है, समाप्त हो जाता
टीका - कूटपाशादिकञ्चापश्यन् यामवस्थामवाप्नोति तां दर्शयितुमाह - स मृगोऽहितात्मा तथाऽहितं प्रज्ञानं बोधो यस्य सोऽहितप्रज्ञानः, सचाहितप्रज्ञानः सन् विषमान्तेन कूटपाशादियुक्तेन प्रदेशेनोपागतः यदि वा विषमान्ते कूटपाशादिके आत्मान मनुपातयेत्, तत्र चासौ पतितो बद्धश्च तेन कूटादिना पदपाशादीननर्थबहुलान् * अवस्थाविशेषान् प्राप्तः तत्र बन्धने घातं विनाशं नियच्छति प्राप्नोतीति ॥९॥
टीकार्थ - आगमकार यहां उस मृग की दुर्वस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं जो कूटपाश आदि को न देखते हुए उधर बढ़ जाता है-वह पुरुष अहितात्मा है-अपनी आत्मा का हित नहीं करता है, अहित करता है, वह अहित प्रज्ञान है, ऐसी बुद्धि से युक्त है, जो अहित या हानि करती है । वह जाल, फंदे आदि से युक्त ऊँचे नीचे स्थान में चला जाता है और वहां गिर पड़ता है जहां पाश-फंदा आदि लगे होते हैं । वह उनमें बंध जाता है । उसके पैर आदि अंग उसमें फंस जाते हैं । वह अनर्थ कष्ट युक्त अवस्था या दुःख प्राप्त करता है । उसी बंधन में वह विनष्ट हो जाता है-मर जाता है।
एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिआ ।
असंकिआई संकंतिः, संकिआई असंकिणो ॥१०॥ छाया - एवं तु श्रमणा एके मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः ।
____ अशङ्कितानि शङ्कन्ते शंकितान्यशङ्किनः ॥
अनुवाद - उपर के दृष्टान्त के अनुसार कई ऐसे मिथ्यादृष्टि-सम्यक्त्व रहित, अनार्य-उत्तम गुण वर्जित, तथा कथित श्रमण उन अनुष्ठानों में कार्यों में, जहां कुछ भी शंका नहीं की जानी चाहिये, शंका करते हैंडरते हैं और जो कार्य शंका करने योग्य हैं-शंकनीय हैं, जिनसे डरना चाहिये उनमें वे शंका नहीं करते ।
टीका - एवं दृष्टान्त प्रदर्श्य सूत्रकार एव दाष्टान्तिकमज्ञानविपाकं दर्शयितुमाह - एवमिति यथा मृगा अज्ञानावृत्ता अनर्थमनेकशः प्राप्नुवन्ति तुरवधारणे, एवमेव श्रमणाः केचित् पाखंडविशेषाश्रिता एके न सर्वे, किम्भूतास्त इति दर्शयति-मिथ्या-विपरीता दृष्टिर्येषामज्ञानवादिनां नियतिवादिना वा ते मिथ्यादृष्टयः तथा अनाऱ्या आराद्याताः, सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः न आ- अनार्या अज्ञानवृत्तत्वादसदनुष्ठायिन इति यावद् । अज्ञानावृतत्वञ्च दर्शयति-अशङ्कितानि अशङ्कनीयाति सुधर्मानुष्ठानादीनि शङ्करानाः तथा शङ्कनीयानि अपायबहुलानि एकान्त पक्ष समाश्रयणानि अशंकिनो मृगा इव मूढ चेतसस्तत्तदाऽऽरम्भन्तेयद्यदनाय सम्पद्यत इति ॥१०॥
टीकार्थ- आगमकार ऊपर दृष्टान्त प्रस्तुत कर अब उसका तुलना के रूप में वह सार बतलाते हैं, जो उनका प्रतिपाद्य है -
जिस प्रकार अज्ञान से आवृत्त-ढके हुए, अज्ञान युक्त, विवेकशून्य मृग तरह तरह के कष्ट पाते हैं, उसी तरह वे पुरुष जो पाखण्ड विशेष को धर्म के नाम पर अधर्म के सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं, श्रमण कहे
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