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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् । सव्वप्पगं विउक्कस्सं, सव्वं णूमं विहूणिआ ।
अप्पत्तिअं अकम्मंसे, एयमटुं मिगे चुए ॥१२॥ छाया - सर्वात्मकं व्युत्कर्षं सर्वं छादकं विधूय ।
___अप्रत्ययमकर्मांश एतमर्थं मृगस्त्यजेत् ॥
अनुवाद - आत्मा के तभी कर्म निर्जीर्ण होते हैं-कटते हैं-जब वह लालच, अहंकार, छल, कपट और कपट का त्याग कर देती है, किन्तु अज्ञानरहित जीव पूर्वोक्त दृष्टान्त में कहे गये हिरण के समान है । वह असलियत को नहीं जानता, इसलिये क्रोध आदि का त्याग नहीं करता ।
टीका - ते च अज्ञानावृत्ता यन्नाप्नुवन्ति तदर्शनायाह - सर्वत्राऽप्यात्मा यस्याऽसौ सर्वात्मको लोभ स्तं विधूयेति सम्बन्धः । तथा विविध उत्कर्षों गर्वो व्युत्कर्षो, मान इत्यर्थः, तथा 'णूमं' त्ति माया तां विधूय तथा 'अप्पत्तियं' त्ति क्रोधं विधूय, कषायविधूननेन च मोहनीयविधूननमावेदितं भवति तदपगमाच्चाशेषकर्माभावः प्रतिपादितो भवतीत्याह- अकर्मांश इति न विद्यते कर्मांशोऽस्येत्यकर्मांशः स चाकर्मांशो विशिष्टज्ञानाद् भवति नाऽज्ञानादित्येव दर्शयति-एनमर्थं कर्माभावलक्षणं मृग इव मृगः-अज्ञानी 'चुए' त्ति त्यजेत् । विभक्तिविपरिणामेन वा अस्मादेवंभूतादर्थात् च्यवेत् भ्रश्येदिति ॥१२॥
____टीकार्थ – वे अज्ञानयुक्त पुरुष किस वस्तु को प्राप्त नहीं कर सकते, इसका स्पष्टीकरण करने की दृष्टि से आगमकार कहते हैं -
यहां इस गाथा में पहला शब्द 'सव्वप्पगम' आया है, इसका संस्कृत रूप सर्वात्मक होता है। सर्वात्मक का अर्थ लोभ है, क्योंकि वह सर्वत्र-सब में पाया जाता है । वैसे लोभ के अर्थ में यह एक पारिभाषिक शब्द है । उस लोभ के त्याग का यहां सम्बन्ध या अभिप्राय है । विविध प्रकार का तरह तरह का उत्कर्ष-अपने को बहुत ऊंचा या बड़ा मानना या गर्व करना व्युत्कर्ष कहलाता है । उसका आशय मान है । यहां 'णूमं' शब्द माया या छल कपट के अर्थ में आया है उस मान, माया और क्रोध तथा कषायों का विधूनन कर-आत्म बल से उन्हें कंपा कर उनका परित्याग कर जीव समस्त कर्मों का अपगम कर देता है-क्षय कर देता है । यहाँ कषाय त्याग के प्रतिपादन से मोहनीय कर्म का त्याग भी-समाविष्ट हो जाता है । वह अकर्मांश-कर्मों का अपगम या नाश विशिष्ट ज्ञान से होता है, अज्ञान से नहीं होता । अतएव सूत्रकार बतलाते हैं कि 'एवमटुं'-एवं अर्थइस कर्म के क्षय रूप अर्थ या प्रयोजन को-करणीय कार्य को अज्ञानी जीव उस मृग के समान छोड़ देता हैउसे कर्ता नहीं। यहां विभक्ति का विपरीणमन कर यह भी अर्थ किया जा सकता है कि अज्ञान युक्त जीव कर्म क्षय रूप लक्ष्य से भ्रष्ट पतित हो जाता है।
जे एयं नाभिजाणंति, मिच्छदिट्ठी अणारिया । मिगा वा पासबद्धा ते, घाय मेसंति णंतसो ॥१३॥ छाया - य एतन्नाभिजानन्ति मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः । मृगा वा पाशबद्धास्ते घात मेष्यन्त्यनन्तशः ॥
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