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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
कर्मादानं, परिज्ञोपचितादस्यायं भेदः तत्र केवलं मनसा चिन्तनमिहत्वपरेण व्यापाद्यमाने प्राणिन्यनुमोदन मिति ॥ २६ ॥
टीकार्थ पहले चतुर्विध कर्मों के उपचित न होने का जो विचार उपस्थित किया गया, उस पर प्रश्न उपस्थित करते हुए कि फिर कर्म का उपचय किस प्रकार होता है, आगमकार उक्त मतवादियों का उस पर मन्तव्य बतलाते हैं -
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आदान या कारण तीन हैं । आदान की व्युत्पत्ति इस प्रकार है - जिनके द्वारा कर्म ग्रहण किये जाते हैं या स्वीकार किये जाते हैं, वे आदान कहे जाते हैं । आगमकार इसी का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैंजिन आदानों-कारणों द्वारा पाप या कल्मष-नीच या अशुभ कर्म किये जाते हैं वे आदान इस प्रकार हैं- वध्यजिसका वध करना है, उस प्राणी को मारने की इच्छा से स्वयं उसका व्यापादन करना, यह एक या प्रथम कर्मादान है । प्राणी की घात या हत्या हेतु किसी नौकर को भेजकर उसका व्यापादन कराना - वध कराना दूसरा कर्मादान है । जो किसी का व्यापादन कर रहा हो, मार रहा हो, मन से उसका अनुमोदन करना, अनुज्ञा देनातीसरा कर्मादान है । परिज्ञोपचित कर्म से इसका अन्तर यह हैं कि परिज्ञोपचित में केवल मन से वध करने का चिन्तन होता है पर इसमें किसी अन्य द्वारा वध किये जाते हुए प्राणी के संदर्भ में उसके घात या वध का अनुमोदन किया जाता है ।
एते उ तउ आयाणा
एवं
जेहिं कीरइ पावगं । भाव विसोहीए, निव्वाणमभिगच्छइ ॥२७॥
छाया एतानि तु त्रीण्यादानानि यैः क्रियते पापकम् । एवं भावविशुद्धया तु निर्वाण मभिगच्छति ॥
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ॐ ॐ ॐ
अनुवाद कर्मबंधन के तीन आदान- कारण हैं जिनके द्वारा पाप कर्मों का अशुभ कर्मों का बंध होता है । जहां ये तीनों नहीं होते वहां भाव विशुद्ध - अत्यन्त शुद्ध होते हैं । कर्मों का बन्ध नहीं होता वरन् निर्वाण या मुक्ति प्राप्त होती है ।
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टीका - तदेवं यत्र स्वयं कृतकारितानुमतय: प्राणिघाते क्रियमाणे विद्यन्ते क्लिष्टाध्यवसायस्य प्राणातिपातश्च तत्रैव कर्मोपचयो नाऽन्यत्रेपि दर्शयितुमाह
तुरवधारणे, एतान्येव पूर्वोक्तानि त्रीणि व्यस्तानि समस्तानि वा आदानानि यैर्दुष्टाध्यवसायसव्यपेक्षैः पापकं कर्मोंपचीयत इति । एवञ्च स्थिते यत्र कृतकारितानुमतयः प्राणिव्यपरोपणम्प्रति न विद्यन्ते तथा भावविशुद्धया अरक्तद्विष्टबुद्ध्या प्रवर्तमानस्य सत्यपि प्राणातिपाते केवलेन मनसा कायेन वा मनोऽभिसन्धिरहितेनोभयेन वा विशुद्धबुद्धेर्न कर्मोपचयः तदभावाच्च निर्वाणं सर्वद्वन्द्वोपरति स्वभावम् अभिगच्छति आभिमुख्येना प्राप्नोतीति ॥२७॥
टीकार्थ प्राणियों के घात या वध के संदर्भ में स्वयं वैसा करना औरों द्वारा कराना तथा करते हुए का अनुमोदन करना - ये तीन विकल्प होते हैं- कारण होते हैं। इनको लेते हुए क्लिष्ट क्लेशपूर्ण-क्रोधावेश आदि से युक्त अध्यवसाय से प्राणी का घात किया जाता है वहीं कर्म का अपचय-बंध होता है । अन्यत्र कर्म बंध नहीं होता । इसका दिग्दर्शन कराने के लिये आगमकार कहते हैं :
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