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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः उत्पन्न हुई यह प्रश्न उठता है । वह स्वयं ही उत्पन्न हुई हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसका स्वयं उत्पन्न होना माना जाय तो यह लोक भी स्वयं उत्पन्न हुआ ऐसा क्यों नहीं माना जा सकता । यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह प्रकृति किसी अन्य से उत्पन्न है क्योंकि ऐसा मानने पर यह उत्पत्ति क्रम आगे से आगे बढ़ता जायगा । ऐसा होने से अनवस्था दोष आयेगा । इसलिये जैसे प्रकृति को अनुत्पन्न और अनादि मानते हो इसी तरह लोक को भी अनुत्पन्न अनादि क्यों नहीं माना जा सकता । सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों की साम्यावस्था को आप प्रकृति कहते हैं । उस अविकृत-विकार रहित प्रकृति से महत् आदि पदार्थों की उत्पत्ति मानना आपको इष्ट नहीं है-वैसा आप नहीं मानते । विकृत-विकार युक्त प्रकृति से ही जगत की उत्पत्ति होती है, ऐसा आप प्रतिपादित करते हैं किन्तु जो विकृत-विकार रहित है वह प्रकृति नहीं हो सकती, इसलिये प्रकृति से महत् आदि तत्त्वों की उत्पत्ति मानना अयुक्तियुक्त है। प्रकृति अचेतन-चेतना रहित है, तब वह पुरुष-आत्मा का अर्थ-प्रयोजन सिद्ध करने के लिये कैसे संप्रवृत्त हो सकती है जिस द्वारा आत्मा का भी भोक्तृत्व सिद्ध होकर सृष्टि की रचना संभव हो सके। यदि ऐसा कहा जाय कि अचेतन होने के बावजूद प्रकृति का-पुरुष का प्रयोजन सिद्ध करने हेतु प्रवृत्त होना स्वभाव है, ऐसा मानने पर तो प्रकृति से स्वभाव ही बलवत्तर होगा क्योंकि वह प्रकृति को भी अपने नियमन-नियंत्रण में रखता है । ऐसी स्थिति में आप स्वभाव को ही जगत का कारण क्यों नहीं मान लेते फिर अदृष्ट प्रकृति आदि की कल्पना की क्या सार्थकता है। यदि आप ऐसा कहते हो कि आदि शब्द द्वारा स्वभाव को भी कोई एक जगत का कारण मानते हैं, उनको वैसा मानने दो, कोई हर्ज नहीं। स्वभाव को जगत का कारण स्वीकार करने पर आर्हतों-जैनों की मान्यता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती क्योंकि स्व-अपने भाव को अर्थात् अपनी उत्पत्ति को स्वभाव कहा जाता है । पदार्थों का उत्पन्न होना जैन भी मानते हैं । नियतिवाद में आस्थावान जनों ने जो प्रतिपादित किया कि यह लोक नियति द्वारा निष्पादि सा उनके इस पक्ष में भी-ऐसा मानने में भी कोई दोष नहीं आता क्योंकि जो पदार्थ जैसा है उसका वैसा होना-उस रूप में नियत होना नियति है । चिन्तन करने पर यह नियति स्वभाव के अतिरिक्त
और कुछ हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता । पहले जो यह प्रतिपादित किया गया कि यह लोक स्वयंभू द्वारा प्रतिपादित किया गया, यह भी संगत नहीं है । स्वयंभू क्या है ? उसका क्या तात्पर्य है। विचार करें । स्वयंभवति इति स्वयंभू-जो स्वयं होते हैं वे स्वयंभू कहलाते हैं । इसके अनुसार जब वे स्वयंभू होते हैं-स्वयं अस्तित्व भावापन्न होते हैं उस समय क्या किसी अन्य कारण की अपेक्षा के बिना ही स्वतंत्र रूप से वैसा होते है ? क्या इसलिये वे स्वयंभू कहलाते हैं, क्या इसीलिये अनादि है यदि वे अपने आप होने के कारण स्वयंभू कहलाते हैं तो इसी प्रकार इस लोक का भी स्वयं-अपने आप उत्पन्न होना, क्यों नहीं स्वीकार कर लेते, तब स्वयंभू को मानने की क्या आवश्यकता रहती है । यदि वे स्वयंभू अनादि होने के कारण स्वयंभू कहलाते हैं तो फिर वे लोक के स्रष्टा नहीं हो सकते क्योंकि जो अनादि होता है, वह नित्य होता है, जो नित्य होता है एक रूपात्मक होता है । अतएव वैसे नित्य स्वयंभू लोक के सर्जक हो सके, यह संभव नहीं है । यदि कहो वे स्वयंभूवीतराग-रागादि शून्य है, यदि ऐसा है तो इस विचित्रतायुक्त जगत के रचयिता नहीं हो सकते । यदि वीतराग के विपरीत उन्हें सराग-रागादि सहित मानते हैं तो वे हम सांसारिक लोगों के समान ही है, विश्व के कर्ता नहीं हो सकते। इसी प्रकार मूर्त, अमूर्त आदि विकल्पों का भी समाहार कर लेना चाहिये जो यह कहा गया कि स्वयंभू ने यमराज की उत्पत्ति की, यमराज ही लोक को मारता है, यह भी एक प्रकार से प्रलाप ही है क्योंकि यह कहा जा चुका है कि स्वयंभू इस संसार का स्रष्टा हो नहीं सकता । किसी ने जो यह प्रतिपादित
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