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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः और न वह क्रमशः क्रियाएं कर सकता । यदि वह देव अनित्य है तो उत्पत्ति के अनन्तर स्वयं विनाशशील होने के कारण वह अपना भी त्राण-रक्षा करने में सक्षम नहीं है फिर वह दूसरे की उत्पत्ति या निष्पत्ति हेतु उद्यम किस प्रकार कर सकता है । फिर सवाल खड़ा होता है जिस देव ने इस जगत की रचना की वह मूर्त है अथवा अमूर्त । यदि वह अमूर्त है-निराकार है तो वह आकाश की तरह अकर्ता है । आकाश निराकार है, उसमें किसी प्रकार का कर्तृत्व नहीं है, वही देव के साथ घटित होगा । यदि वह मूर्त है तो कार्य की निष्पत्ति हेतु एक साधारण पुरुष को जैसे उपकरणों की-साधनों की आवश्यकता होती है उसे भी साधनों की . आवश्यकता होगी। साधन कहां से आयेंगे । ऐसी स्थिति में वह समस्त लोक का सर्जक नहीं है, यह बिल्कुल साफ है। .
. पांचवी गाथा के तीसरे चरण में 'देवउत्ते' पद आया है । उसके प्राकृत की दृष्टि से देवगुप्त एवं देवपुत्र दो रूप बनते हैं । इनकी पहले चर्चा आई है । यह अत्यन्त 'फल्गु'-नगण्य या तुच्छ होने के कारण सुनने योग्य भी नहीं है । यही दोष ब्रह्मोप्त पक्ष में भी लागू होता है क्योंकि वह भी देवगुप्त पक्ष के सदृश ही है। जो ईश्वर को जगत का कारण मानते हैं वे शरीर भुवन और इंद्रियों के सम्बन्ध में जिन्हें विभिन्न मतवादियों ने अपने अपने मन्तव्यों के अनुसार व्याख्यात किया हैं, वे प्रतिपादित करते हैं कि ये किसी विशिष्ट बुद्धिमान स्राष्टा द्वारा बनाये गये हैं जैसे घट किसी के द्वारा बनाया गया है। उनका यह कथन अयुक्तियुक्त है क्योंकि किसी विशिष्ट कारण में, कार्य की व्याप्ति स्वीकार नहीं की जाती किन्तु वह कारण में ही स्वीकार की जाती है । जो पुरुष यह जानता है कि अमुक व्यक्ति अमुक कार्य करता है, दूसरा नहीं कर सकता । वह व्यक्ति । उस कार्य को देखकर उसे करने वाले विशिष्ट व्यक्ति का अनुमान कर सकता है, अन्दाजा लगा सकता है। पर जो पदार्थ अत्यन्त अदृष्ट है, सर्वथा दृष्टिगम्य नहीं है, उसमें ऐसी प्रतीति नहीं हो सकती । दूसरे शब्दों में जिसकी रचना करता हुआ कोई व्यक्ति कभी भी किसी के द्वारा दृष्टिगोचर नहीं हुआ, उस वस्तु को देखकर उसके विशिष्ट रचनाकार का अनुमान नहीं किया जा सकता । यदि यह कहा जाय कि घट को देखकर उसके रचयिता कुम्भकार का अनुमान किया जाता है जो एक विशिष्ट जाति का पदार्थ है, इसी प्रकार जगत को. देखकर उसके विशिष्ट कर्ता ईश्वर का अनुमान किया जा सकता है यह भी युक्ति संगत-तथ्य पूर्ण नहीं है। क्योंकि घट एक विशेष प्रकार का कार्य है । कुम्भकार जो उसका स्रष्टा है, उसे कर्ता हुआ-घट को बनाता हुआ प्रत्यक्ष देखा जाता है | अतः घट को देखकर कुम्भकार का अनुमान किया जाना सही है । ऐसा किया जाना संगत है किंतु जगत को देखकर ईश्वर का अनुमान नहीं किया जा सकता क्योंकि घट का निर्माण करता हुआ कुम्भकार जैसे प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है उस प्रकार नदी, सागर पहाड़ आदि का निर्माण करता हुआ कोई बुद्धिमान कर्ता-ईश्वर कदाऽपि दृष्टि गम्य नहीं होता । अतः जगत को देखकर उसके विशिष्ट बुद्धिमान स्रष्टा का अनुमान नहीं किया जा सकता । यदि कहा जाय कि विशिष्ट संस्थान-आकारयुक्त होने से घट आदि पदार्थ एक बुद्धिमान रचयिता द्वारा रचित है, इसी प्रकार विशिष्ट संस्थान युक्त होने के कारण पर्वत आदि पदार्थ भी बुद्धिमान स्रष्टा द्वारा सर्जित है, यह साबित किया जा सकता है, ऐसा कहना भी युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि विशिष्ट संस्थान या अंगोपांग की रचना होने से ही सभी पदार्थ बुद्धिमान स्रष्टा द्वारा रचित हो, यह प्रतीत नहीं होता। यदि ऊपर के कथन को माना जाय तो बल्मीक-मिट्टी का जमा स्तूप-ढेर भी जो मृत्तिका का विकार हैं घट के सदृश कुम्भकार द्वारा ही रचित होना-चाहिए जैसे कुंभकार मृत्तिका से घट आदि पदार्थों की रचना करता है । उसे देखकर ऐसा प्रतिपादित नहीं किया जा सकता कि जो जो पदार्थ मृत्तिका से निर्मित है । उन
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