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4 श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् किया कि यह संसार अण्डे से निकला है, क्रमशः प्रकट हुआ है, ऐसा कहना भी न्याय संगत नहीं है । क्योंकि जिस पानी में अंडा पैदा किया, वह पानी तो अंडे के बिना पहले से ही उत्पन्न था, तभी तो उसमें अंडा निधापित किया जा सका । उसी प्रकार यह जगत भी अंडे के बिना ही उत्पन्न हुआ, ऐसा मानने में कोई बाधा नहीं आती । ब्रह्मा जब तक अंडे का निर्माण करते हैं तब तक इसलोक का ही निर्माण क्यों नहीं कर देते हैं । अतः यह अंडे की कष्ट कल्पना अयुक्तियुक्त है । इसका क्या प्रयोजन है ? यदि ऐसा कहते हो कि अंडे के बिना ही ब्रह्मा इस लोक की सृष्टि करते हैं । खैर ऐसा ही सही । फिर एक बात है किसी ने कहा है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए । यह प्रतिपादन भी युक्तिसंगत नहीं होता क्योंकि मुख आदि से किसी का उत्पन्न होना उपलक्षित नहीं होता-दृष्टिगोचर नहीं होता । यदि ऐसी ही बात हो तो ब्राह्मणादि वर्गों का परस्पर अभेद होगा । वे भिन्न भिन्न नहीं रहेंगे क्योंकि वे एक ही ब्रह्मा से उत्पन्न हैं । इसके साथ साथ ब्राह्मणों का कठ, तैतिरीयक तथा कलाप आदि भेद नहीं हो सकेंगे क्योंकि जब सभी ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए तो फिर भेद कैसा ? इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों का उपनयन संस्कार, विवाह संस्कार आदि भी संभव नहीं होंगे। ऐसा होने पर अपनी बहिन के साथ पाणिग्रहण करना भी मान्य होगा । इस प्रकार अनेक दोष होने के कारण ब्रह्मा के मुख आदि से लोक की उत्पत्ति मानना स्वीकार करने योग्य नहीं है । इसलिये यह साबित होता है कि पूर्वोक्त-पहले चर्चित मतवादी इस लोक का वास्तविक स्वरूप नहीं जानते हैं । अतएव वे मिथ्या प्रतिपादित करते हैं (यह लोक उर्ध्व-ऊपर अधः नीचे, चतुर्दश रजु प्रमाण है । इसका आकार वैशाखास्थान-रंगशाला या नाट्यशाला में कमर पर हाथ रखकर नृत्य करने हेतु खडे हुए पुरुष के समान है । यह जगत नीचे मुख किये हुए औधे रखे हुए सिकोरे के समान आकार युक्त अधोपी सात लोको से समायुक्त है । असंख्यात द्वीप तथा सागरों के आधार स्थल थाली के समान आकार वाले मध्य लोक से युक्त है । सिकोरों की पेटी के समान इसके ऊपरी भाग में उर्ध्व लोक है । इस लोक में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, एवं जीवास्तिकाय परिव्याप्त है । ये तदात्मक है, द्रव्यार्थिक नय के अनुसार द्रव्यत्व की दृष्टि से यह नित्य है तथा पर्यायात्मक दृष्टि से क्षणक्षयी-क्षण क्षण परिवर्तित होने वाला है । यह उत्पाद, व्यय एवं ध्रोव्य-ध्रुवता से युक्त है । अतएव यह द्रव्य स्वरूप है । जीव और कर्म अनादि काल से संबद्ध हैं। अतएव यह लोक अनेक प्रकार के भव प्रपंचों से-जन्म मरणादि-आवागमन आदि से जुड़ा है । आठ प्रकार के कर्मों से रहित मुक्ति प्राप्त जीव लोकान में-इसके अन्त में अवस्थित है। जगत के इस यथार्थ स्वरूप को जो नहीं जानते वे इतर मतवादी असत्य भाषण करते हैं-मिथ्या तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं ।
अमणुन्नसमुप्पायं, दुक्खमेव विजाणिया ।
समुप्पांयमजाणंता, कहं नायंति संवरं ? ॥१०॥ छाया - अमनोज्ञसमुत्पादं दुःखमेव विजानीयात् ।
समुत्पादमजानन्तः कथं ज्ञास्यन्ति संवरम् ॥ अनुवाद - अमनोज्ञ-अशुभ कर्म से ही दुःख उत्पन्न होता है जो व्यक्ति दु:ख के उत्पन्न होने का कारण नहीं जानते । वे दु:ख के संवरण-नाश का उपाय कैसे जान सकते हैं ।
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