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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् सबका सृष्टा कुम्भकार है क्योंकि ऐसा प्रतिपादित करने से-मानने से बल्मीक-बांबी-मिट्टी का जमा स्तूपढेर भी कुम्भकार द्वारा रचित सिद्ध होगा । जो तथ्यपूर्ण नहीं है । इसी प्रकार संस्थान रचना को देखने मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि जो जो संस्थान या अवयव रचनायुक्त है, वे सभी बुद्धिमान स्रष्टा द्वारा सर्जित है। वास्तविकता यह है कि जिस संस्थान रचना का बुद्धिमान रचनाकार द्वारा रचित होना जाना जा चुका है। उसी संस्थान रचना को देखकर उसके विशिष्ट रचयिता का अनुमान किया जा सकता है । केवल संस्थान रचना मात्र को देखकर अनुमान नहीं किया जा सकता है । संस्थान रचना को देखकर रचनाकार ईश्वर का भी अनुमान नहीं किया जा सकता क्योंकि घटादि पदार्थों की संस्थान रचना का विशिष्ट रचयिता कुम्भकार ही दृष्टि गोचर होता है-ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं होता । यदि घट का भी स्रष्टा ईश्वर ही है तो कुम्भकार को मानने की क्या आवश्यकता है । यदि ऐसा कहा जाय कि ईश्वर सर्वव्यापी है अतः निमित्त रूप से घटादि की रचना में भी उसका व्यापार-प्रवर्तन होता है तो इससे दृष्ट-जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, उसकी हानि विनाश या अप्राप्ति एवं अदृष्ट-जो दिखाई नहीं देता उसकी कल्पना का प्रसंग उपस्थित होता है । स्थिति यह है, घट का रचयिता कुम्भकार प्रत्यक्ष उपलब्ध है, दृष्टिगोचर है, उसे न मानना-अस्वीकार करना दृष्ट हानि है और घट का निर्माण करता हुआ ईश्वर कदापि दृष्टिगोचर नहीं होता उसे घट का निमित्त मानना अदृष्ट की परिकल्पना
.. कहा गया है चैत्र नामक व्यक्ति का व्रण-घाव औजार द्वारा ऑपरेशन तथा दवा के लेप आदि द्वारा ठीक होता है । अत: उसके घाव के मिटने में, ठीक होने में औजार और दवा ही कारण है, दूसरे पदार्थ कारण नहीं है । स्थाणु-एक ढूंठ को जिसका उस घाव के अच्छे होने में कुछ भी संबंध नहीं है उसे उस घाव के अच्छे होने का कारण क्यों नहीं मान लेते । इसलिये जिस पदार्थ का जो कारण दृष्टिगोचर होता है, उसे उसका कारण स्वीकार न कर, जो उसका कारण ही नहीं है, उसे उसका कारण मान लेना न्याय्य नहीं है । न्याय तथा युक्तिपूर्ण नहीं है । इसी संदर्भ में जो देवकुल-देवस्थान, आवट्ट-कुंआ या गढ्ढा आदि का जो रचयिता है
वह संस्थान अवयव सहित है, अव्यापक और अनित्य है ऐसा दृष्टिगोचर होता हैं इसलिए उनके दृष्टान्त से . जिस ईश्वर को प्रमाणित करते हैं, वह संस्थान अवयव सहित है, अव्यापक और अनित्य है ऐसा दृष्टि गोचर होता है । इसलिये उनके दृष्टान्त में जिस ईश्वर को प्रमाणित करते हैं वह संस्थान युक्त-अंगोपांग युक्त अव्यापकव्यापकता रहित तथा नित्यत्व रहित सिद्ध होता है । इसके प्रतिकूल अर्थात् संस्थान वर्जित-अवयव रहित, व्यापक, तथा नित्य ईश्वर को सिद्ध करने के लिये कोई दृष्टान्त प्राप्त नहीं किया जा सकता । अनुमान द्वारा वैसा सिद्ध नहीं किया जा सकता । जिस प्रकार यह कार्यत्व रूप हेतु ईश्वर को प्रमाणित करने हेतु सक्षम नहीं है-इससे ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । इसी प्रकार पहले स्थित होकर प्रवृत्त होना आदि जो हेतु बताये गये हैं वे भी ईश्वर को सिद्ध नहीं कर सकते । ऐसा यहां समझ लेना चाहिये क्योंकि वे हेतु भी कार्यत्व रूप हेतु के सदृश ही है, वे अभिप्सित अर्थ के साधक नहीं हैं । जो यह पहले कहा कि यह लोक प्रकृति आदि द्वारा रचित है, वह भी यक्ति संगत नहीं है ।
प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रकृति मूर्त-साकार है या अमूर्त-निराकार है । यदि वह अमूर्त-निराकार है तो उससे मूर्त-साकार समुद्र आदि उत्पन्न नहीं हो सकते, अमूर्त आकार इसका उदाहरण है, जिससे कोई भी वस्तु उत्पन्न होती हुई दृष्टिगोचर नहीं होती । अतः मूर्त और अमूर्त का आपस में कार्य कारण भाव सिद्ध नहीं होता अर्थात् अमूर्त मूर्त की निष्पत्ति में कारण नहीं बन सकता । यदि प्रकृति मूर्त-साकार है तो वह किससे
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