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- श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् टीकार्थ - इस संसार को देव आदि द्वारा रचित बताने वाले वादियों के सिद्धान्तों के निराकरण हेतु आगमकार कहते हैं -
___ पहले चर्चित अन्य दर्शनों में विश्वास करने वाले वादी अपनी अच्छा से-मनचाही युक्तियों द्वारा इस जगत को रचा हुआ बतलाते हैं । उनमें से कई इसे देवोप्त-देवकृत, कई ब्रह्मोप्त-ब्रह्मा द्वारा रचित, तथा कई ईश्वरकृत-ईश्वर रचित बतलाते हैं । कई इसे प्रकृति आदि द्वारा निष्पादित और कई स्वयंभू द्वारा निर्मित कहते हैं । जो इसे स्वयंभू द्वारा रचित मानते हैं वे कहते हैं कि यह उसी स्वयंभू द्वारा निष्पादित माया से मरण प्राप्त करता है, नष्ट होता है । कई इसको अण्डे से पैदा होना बतलाते हैं। वे वादी अपनी-अपनी उपेपत्तियो-युक्तियों एवं तर्कों के सहारे कहते हैं कि हमने जो कहा है वही सत्य है, औरों का कहा सत्य नहीं है । वास्तव में यह पूर्व वर्णित सिद्धान्तवादी सत्य तथ्य को नहीं जानते। उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि इस लोक का क्या स्वभाव है। इसकी वे भली भांति विवेचना नहीं कर पाते ।
वस्तुः स्थिति यह है कि यह लोक कभी भी एकान्तरूपेण सर्वथा नाश प्राप्त नहीं करता-नहीं मिटता क्योंकि द्रव्य रूप से वह सदा विद्यमान रहता है, न ऐसा ही है कि आदि में-शुरु शुरु में या पहले पहल किसी ने इसकी रचना की हो क्योंकि यह लोक पहले भी विद्यमान था, वर्तमान में भी विद्यमान है और भविष्य में भी विद्यमान रहेगा।
बेवोप्तवादी-देव द्वारा लोक की सृष्टि होना मानने वाले इस लोक को देवकृत कहते हैं । यह बिल्कुल अयुक्तियुक्त है क्योंकि इस लोक का किसी देव ने सर्जन किया हो । इस संबंध में कोई भी प्रबल समर्थ प्रमाण प्राप्त नहीं होता । जिस बात का कोई प्रमाण नहीं होता उससे विद्वानों-ज्ञानियों के मन को संतोष नहीं होता। वे उसे स्वीकार नहीं करते । दूसरी शंका यह खडी होती है कि जिस देव ने इस लोक की रचना की वह देव स्वयं उत्पन्न होकर इस लोक का सर्जन करता है अथवा अनुत्पन्न-उत्पन्न हुए बिना ही उसे बनाता है। यहां यह समझने की बात है कि वह उत्पन्न हुए बिना इस संसार की रचना नहीं कर सकता क्योंकि जो उत्पन्न ही नहीं है-विद्यमान ही नहीं है उसका खरविषाण-गधे के सींग की ज्यों कोई अस्तित्त्व ही नहीं होता । जब स्वयं का ही कोई अस्तित्त्व नहीं है तो औरों की क्या सृष्टि करेगा । यदि ऐसा मानो कि वह देव उत्पन्न होकर सृष्टि की रचना करता है तो इसका समाधान क्या होगा । बतलायें ? क्या वह अपने आप ही उत्पन्न होता है अथवा किसी अन्य के द्वारा उत्पन्न किया जाता है । यदि ऐसा मानते हो कि उसकी उत्पत्ति स्वयं ही होती है तो फिर इस लोक को भी स्वयं ही उत्पन्न होता हुआ क्यों नहीं मान लेते । यदि ऐसा मानते हो कि वह देव किसी अन्य से उत्पन्न होकर इस लोक की रचना करता है तो वह दूसरा देव किसी अन्य तीसरे देव से उत्पन्न होगा । वह तीसरा किसी चौथे देव से उत्पन्न होगा, यह उत्पत्ति का क्रम आगे से आगे चलता जायगा, कहीं पर जाकर नहीं रुकेगा । इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा, वह अनवस्थारूपी लता-बेल अनिवारितबिना रुके हुए आगे से आगे प्रसर्पण-विस्तार पाती हुई या फैलाव करती हुई समस्त गगन मण्डल को आपूर्ण कर देगी-भर देगी, यों सबका मूल कारण कोई भी प्रमाणित नहीं हो पायेगा। यदि ऐसा कहा जाये कि वह देव अनादि है, उसका कोई आदि या प्रारंभ नहीं है, इसलिये वह उत्पन्न नहीं होता, तब विचार किया जाये इसी प्रकार इस जगत को अनादित क्यों न मान लिया जाय । एक प्रश्न और उपस्थित होता है कि जिस देव ने इस लोक की रचना की, वह नित्य है या अनित्य । यदि उसे नित्य मानते हो तो उसका अर्थ क्रिया के साथ विरोध होगा । नित्य पदार्थ अर्थ क्रियाकारी नहीं होता । वह युगपत्-एक साथ क्रियाएं नहीं कर सकता
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