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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः "प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्तञ्च तद्गता चेष्टा । प्राणैश्च विप्रयोगः पञ्चभिरापाद्यते हिंसा" ॥१॥
कियेकान्तेनैव परिज्ञोपचितादिना कर्मोपचयो न भवत्येव? भवति काचिदव्यक्तमात्रेति दर्शयितुंश्लोकपश्चार्धमाह'पुट्ठो' त्ति तेन केवल मनोव्यापार रूपपरिज्ञोपचितेन केवल कायक्रियोत्थेन वाऽविज्ञोपचितेनेर्यापथेन स्वप्नान्तिकेन च चतुर्विधेनाऽपि कर्मणा स्पृष्ट ईषच्छुप्तः संस्तत्कर्माऽसौ स्पर्शमात्रेणैव परमनुभवति न तत्याधिको विपाकोऽस्ति कुड्यापतितसिकतामुष्टिवत् स्पर्शानन्तरमेव परिशटनीत्यर्थः। अतएव तस्य चयाभावोऽभिधीयते न पुनरत्यन्ताभाव इति । एवञ्च कृत्वा तद् अव्यक्तम् अपरिस्फुटं, खुरवधारणे अव्यक्तमेव स्पष्ट विपाकानुभवाभावात् तदेवमव्यक्तं सहावद्येन-गषेण वर्तते तत्परिज्ञोपचितादि कर्मेति ॥२५॥
टीकार्थ - वे क्रियावादी कर्म चिन्ता से रहित है, ऐसा जो कहा गया है, उसे स्पष्ट करते हुए आगमकार बतलाते हैं -
जो पुरुष जानता हुआ प्राणियों की हिंसा करताहै किन्तु शरीर द्वारा वह अनाकुट्टी है, उसके कर्म का बंध नहीं होता । 'कुट्ट' धातु छेदन के अर्थ में है । छेदनमूलक कार्य आकुट्टन या आकुट्ट कहा जाता है । उसे जो करता है उसे आकुट्टी कहा जाता है । जो आकुट्टी नहीं है वह अनाकुट्टी की संज्ञा से अभिहित हुआ है । अनाकुट्टी का तात्पर्य अहिंसक या हिंसा वर्जित से हैं । इसका तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति कोपआदि के कारण मात्र अपने मनो व्यापार से-मानसिक क्रिया से प्राणियों का व्यापादन करता है. मारता है. उनकी हिंसा करता है किन्त वह प्राणियों के अवयवों का. अंगों का छेदन भेदन मलक व्यापार कार्य नहीं करता है, उन्हें काटकर नष्टकर छिन्न भिन्न नहीं करता है. उसके अवद्य-पाप या अशभ कर्म का उपचय-संग्रह या बंध नहीं होता । जो पुरुष अबुद्ध है-नहीं जानता है, मन में क्रोधादि विकार नहीं है केवल काय व्यापार से शरीर की क्रिया से प्राणी की हिंसा करता है, वहां मन का व्यापार-मानसिक हिंसा भाव न होने से कर्म का उपचयबंध-नहीं होता । इस गाथा के आधे भाग में जो यह कहा गया है, नियुक्तिकार ने इस संबंध में पहले कहा ही है कि भिक्षुओं का यह सिद्धान्त है कि चार प्रकार के कर्म उपचित नहीं होते-संग्रहित या बद्ध नहीं होते, नहीं बंधते । इसमें परिज्ञोपचित्त-जानते हुए भी किये गये, तथा अविज्ञोपचित-न जानते हुए किये गये ये दो भेद श्लोक के पूर्वार्द्ध द्वारा साक्षात् परिगृहीत है-लिये गये हैं तथा अवशिष्ट ईर्यापथ एवं स्वप्नान्तिक इन दो भेदों को 'च' शब्द से लिया गया है । ईरण या ईर्या का अर्थ गमन है । तद्विषयक पथ या मार्ग को ईर्यापथ कहा जाता है, उसके द्वारा जो कर्म बन्ध होता है, वे ईर्यापथ या ईर्यापथिक कहे जाते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि रास्ते चलते समय यथा कथंचित अनजाने, जो प्राणी व्यापदन-किसी जीवधारी का घात हो जाता है, उसे कर्म उपचित-बद्ध नहीं होता । स्वप्नान्तिक कर्म भी नहीं बंधता । लोकोक्ति-जनमान्यता के अनुसारस्वप्न ही स्वप्नान्त कहा जाता है । स्वप्नान्त से जिसका संबंध हो उसे स्वप्नान्तिक कहते हैं । वह स्वप्नान्तिक. कर्म भी बंधन कारक नहीं होता । जैसे स्वप्न में किसी ने भोजन किया पर वैसा होने पर वास्तव में तृप्ति । या भूख की निवृत्ति नहीं होती । उसी प्रकार स्वप्न या सपने में किये गये प्राणी व्यापादन से कर्म बन्ध नहीं होता । प्रश्न उठाया जाताहै तब उन भिक्षुओं के किस प्रकार कर्म बंध होता है वे कैसे कर्मबन्ध होना मानते हैं ? इस संदर्भ में वे कहते हैं कि जिसे मारा जा रहा है। यदि वह प्राणवान है, जो मार रहा है, हन्ता है उसे उसके प्राणी होने का ज्ञान होताहै तथा हन्ता की यह बुद्धि होती है-सोच होता है कि मैं इसका घात करता हूँ ऐसा सब होने की स्थिति में-ऐसा होने पर यदि हंता अपनी काया से उसे मारने का प्रयत्न करता है, वैसे प्रयत्न के परिणामस्वरूप उस प्राणी का घात हो जाता है, तब वास्तव में हिंसा होती है और तभी कर्म का उपचय या बंध होता है।
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