________________
स्वसमय वक्तव्यताधिकारः टीकार्थ - आगमकार अब सामान्यतः उन सभी मतवादियों के सिद्धान्तों को, जो ऐकान्तिकता में विश्वास करते हैं दोषयुक्त बताने हेतु प्रतिपादन करते हैं -
___ अन्यायन्य दर्शनों में विश्वास करने वाले व्यक्ति अपने अपने दर्शनों की प्रशंसा करते हैं, वर्णन करतेहैं तथा समर्थन करते हैं, दूसरों के वचनों की, मन्तव्यों की निन्दा करते हैं ।
उदाहणार्थ-समग्र पदार्थों के आविर्भाव-उत्पत्ति तथा तिरोभाव विलय में विश्वास करने वाले सांख्य दर्शन के अनुयायी बौद्धों की निन्दा करते हैं, जो सब पदार्थों को क्षणिक तथा निरन्वय-आगे पीछे के सम्बन्ध से रहित विनश्वर मानते हैं । बौद्ध भी सांख्यवादियों की निन्दा करते हैं । वे कहते हैं कि जो पदार्थ नित्य है, वह अर्थ क्रिया नहीं कर सकता, न तो वह क्रमशः वैसा कर सकता है और न युगपत-एक साथ ही वैसा कर सकता है । इसी प्रकार अन्य दर्शनवादी भी करते हैं, ऐसा समझना चाहिये । यहां पर आया हुआ 'तु' शब्द अवधारण और भिन्न क्रम का सूचक है । वे विभिन्न मतवादी अपने अपने दर्शनों की प्रशंसा करते हैं तथा अन्यों के वादों की विगर्हणा-निन्दा या अवहेलना करते हैं । ऐसा करतेहुए वे परस्पर विद्वेष करतेहुए विद्वानों के समान आचरण करते हैं । वे अपने सैद्धान्तिक पक्ष के समर्थन में विशिष्ट युक्तियां प्रतिपादित करते हैं, ऐसा करने वाले वे सिद्धान्तवादी इस चतुर्गतिमय-चार गतियों से युक्त संसार में विविध प्रकार से अनेक तरह से गाढ़ बंधनों में बंधते हैं । वे इस संसार में सर्वदा निवास करते हैं चक्कर काटते हैं।
अहावरं पुरक्खायं किरिया वाइदरिसणं ।
कम्मचिंतापणट्ठाणं संसारस्स पवड्वणं ॥२४॥ छाया - अथाऽपरं पुराऽऽख्यातं क्रियावादिदर्शनम् ।
कर्मचिन्ताप्रनष्टानां संसारस्य प्रवर्धनम् ॥ अनुवाद - अन्य तीर्थकों में एक क्रियावादी दर्शन भी है वहां कर्म की चिन्ता-कर्मवाद विषयक चिन्तन प्रनष्ट है-उपेक्षित है, उस पर विचार नहीं किया जाता । उनका मत संसार को-आवागमन के चक्र को बढ़ाने वाला है।
टीका - साम्प्रतं यदुक्तं नियुक्तिकारेणोद्देशकार्थाधिकारे कर्म चयं न गच्छति चतुर्विधं भिक्षु समय इति तदधिकृत्याह - अथेत्यानन्तर्ये, अज्ञानवादिमतानन्तरमिदमन्यत् पुरा पूर्वमाख्यातं कथितम्, किं पुनस्तदित्याहक्रियावादिदर्शनम्, क्रियैव चैत्यकर्मादिका प्रधानं मोक्षाङ्गमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिन स्तेषां दर्शनम् आगमः क्रियावादिदर्शनम्, किं भूतास्ते क्रियावादिन इत्याह-कर्मणि ज्ञानावरणादिके चिन्ता पालोचनं कर्म चिन्ता तस्याः, प्रणष्टा-अपगताः कर्मचिन्ताप्रणष्टाः यतस्तेऽविज्ञानाद्युपचितं चतुर्विधं कर्मबन्धं नेच्छन्ति अत:कर्मचिन्ताप्रणष्टाः, तेषाञ्चेदं दर्शनम् दुःखस्कन्धस्य असातोदयपरम्परायाः विवर्धनंभवति । क्वचित्संसारवर्धनमिति • पाठः तेह्येवं प्रतिपद्यमानाः संसारस्य बुद्धिमेव कुर्वन्ति नोच्छेदमिति ॥
टीकार्थ - नियुक्तिकार ने उद्देशक के अधिकार में जो यह प्रतिपादित किया कि भिक्षुओं के सिद्धान्तानुसार चार प्रकार के कर्म बंधन कारक नहीं होते । उसी संदर्भ को लेकर आगमकार यहां प्रतिपादित करते हैं -
-810