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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
जगे ।
माहणा समणा एगे आह अंडकडे
असो तत्त मकासी य, अयाणंता मुसं वदे ॥८॥
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अनुवाद कपितय ब्राह्मण परम्परान्तर्वर्ति तथा श्रमण परम्परान्तवर्ति वादी ऐसा कहते हैं कि यह जगत अंडे से निर्मित हुआ है । ब्रह्मा ने तत्त्व समूह का सर्जन किया, उसी का परिणाम यह जगत है । ऐसा कहने वाले वास्तव में अज्ञानी हैं। वे तथ्य या सत्य तथ्य को नहीं जानते और वे मिथ्या असत्य ही कहते हैं ।
ब्राह्मणाः श्रमणा एके आहुरण्डकृतं जगत् । असौ तत्त्व मकार्षीच्या जानन्तो मृषा वदन्ति ॥
टीका अपि च ब्राह्मणा धिग्जातयः श्रमणाः त्रिदण्डिप्रभृतय एके केचन पौराणिकाः न सर्वे, एवम्, आहु रुक्तवन्तो, वदन्ति च यथा - जगदेतच्चराचर मंडेन कृत मण्डकृत मण्डाज्जात मित्यर्थः । तथा ते वदन्ति यदा न किञ्चिदपि वस्त्वासीत् पदार्थ शून्योऽयं संसार स्तदा ब्रह्माऽप्सु अण्ड मसृजत् तस्माच्च क्रमेण वृद्धात् पश्चाद् द्विधाभावमुपगतादूर्ध्वाधो विभागोऽभूत् । तन्मध्ये च सर्वाः प्रकृतयोऽभूवन्, एवं पृथिव्यप्तेजो वाय्वाकाशसमुद्रसरित्पर्वत्मक्राकरसंनिवेशादिसंस्थितिरभूदिति । तथा चोक्तम्
" आसीदिदं तमोभूतयप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतर्क्स मविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः " ?
एवम्भूते चाऽस्मिन् जगति असौ ब्रह्मा, तस्य भाव स्तत्त्वं पदार्थजातं तदण्डादिक्रमेण अकार्षीत् कृतवान् इति । ते च ब्राह्मणादयः परमार्थमजानानाः सन्तो मृषा वेदन्त एवं वदन्ति । अन्यथा च स्थितं तत्त्वमन्यथा वदन्तीत्यर्थः ॥८॥)
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टीकार्थ - ब्राह्मण का अर्थ धिग जातीय अर्थात् जो जाति या जन्म की दृष्टि से स्वयं को सर्वोच्च मानते औरों को हीन मानते हैं, वे विप्र, श्रमण- श्रमण परम्परा के अन्तरवर्ती त्रिदण्डी आदि तापस, जिनमें से सब नहीं तथा पौराणिक - पुराणों में विश्वास रखने वाले कहते हैं कि यह चल, अचल जङ्गम स्थावर जगत अंडे से उत्पन्न हुआ हैं । वे आगे कहते हैं कि जब कोई वस्तु विद्यमान नहीं थी, यह संसार पदार्थ शून्य था
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तब ब्रह्मा ने जल में अंडा छोड़ा, वह अंडा क्रमशः बढता गया, फिर वह दो खण्डों में विभक्त हो गया । उस 3 परिणाम स्वरूप उर्ध्व ऊपर का लोक तथा अधः- नीचे का लोक ये दो विभागं उत्पन्न हुए, उनमें सभी प्रकार
की प्रजा - प्राणी उत्पन्न हुए । इस प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, समुद्र, नदी एवं पर्वत आदि की निष्पत्ति हुई । वे ऐसा भी कहते हैं कि जगत की रचना से पहले यह संसार तमो भूत- अंधकारमय तथा अप्रग्यातज्ञान शून्य तथा अलक्षण-लक्षण रहित था । उस समय यह संसार अप्रतर्क्स-अतर्कणीय-तर्क द्वारा अविचारणीय अज्ञेय - ज्ञान का अविषय, न जानने योग्य तथा सब ओर से प्रसुप्त - सोया हुआ सा था । जब जगत ऐसी स्थिति में था तब ब्रह्मा ने अंडे की उत्पत्ति की और उसके प्रयोग क्रम से इस जगत का निर्माण किया । परमार्थवास्तविक तथ्य को नहीं जानने वाले ब्राह्मण आदि परम्पराओं के सिद्धान्तवादी इस जगत को ब्रह्मा द्वारा कृत या रचित मानते हैं । जो सत्य से परे हैं, वास्तविकता तो ओर है किन्तु वे उससे भिन्न रूप में प्रतिपादित करते हैं । इस गाथा का ऐसा अभिप्राय है
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