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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् सोलह में से पांच से-पंचतन्मात्राओं से पांच महाभूत पैदा होते हैं । इस प्रक्रिया द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति होती है । अथवा यहां 'आदि' शब्द के प्रयोग से स्वभाव आदि को लिया जाता है । तद्नुसार इसका अभिप्राय यह होता है कि कंटक-कांटे में तैक्ष्ण्य-तीक्ष्णता या तीखापन स्वभावजनित है । उसी तरह समस्त जगत स्वभाव से उत्पन्न है किसी कर्ता द्वारा रचित नहीं है । दूसरे मतवादी ऐसा कहते हैं कि जैसे मोर के अंग रूह-रोम पंख आदि चित्र-विचित्र रूप में नियति द्वारा निर्मित है । उसी प्रकार यह समग्र लोक नियति से ही उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार पहले बतलाये गये ईश्वर आदि कारणों से निष्पन्न यह लोक उपयोग-ज्ञान या चेतनायुक्त जीवों और धर्म अधर्म, आकाश पुद्गल आदि अजीवों एवं समुद्र, पर्वत आदि से समन्वित-समायुक्त या परिपूर्ण है। फिर भी लोक का वैशिष्ट्य बताने के लिये आगमकार कहते हैं कि आनन्दात्मक सुख तथा असाता प्रतिकूल वेदनीय के उदय से प्राप्त दुःख इन दोनों से यह लोक परिव्याप्त है।
सयंभुणा कडे लोए इति वुत्तं महेसिणा ।
मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए ॥७॥ छाया - स्वयम्भुवा कृतो लोक इत्युक्तं महर्षिणा ।
मारेण संस्तुता माया तेन लोकोऽशाश्वत: ॥ अनुवाद - कुछ मतवादी ऐसा कहते हैं कि स्वयंभू-विष्णु द्वारा यह लोक कृत या रचित है। ऐसा हमारे महर्षि-महान ऋषि ने कहा है, यमराज ने माया की रचना की । इस प्रकार यह लोक अनित्य है ।
___टीका - किञ्च-'सयंभुणा' इत्यादि, स्वयम्भवतीति स्वयम्भूः विष्णुरन्यो वा । सचैक एवादावभूत्, तत्रैकाकी रमते, द्वितीयमिष्टवान्, तच्चिन्तानन्तरमेव द्वितीया शक्तिः समुत्पन्ना तदन्तरमेव जगत्सृष्टिरभूदिति एवं महर्षिणा उक्तम् अभिहितम् । एवं वादिनो लोकस्य कर्तारमभ्युपगतवन्तः । अपि च तेन स्वयम्भुवा लोकं निष्पाद्यातिभारभयाद्यमाख्यो मारयतीति मारो व्यधायि, तेन मारेण संस्तुता कृता प्रसाधिता माया, तथा च मायया लोकाः म्रियन्ते । न च परमार्थतो जीवस्योपयोगलक्षणस्य व्यापत्तिरस्ति अतो मायैषा यथाऽयं मृतः । तथाचाऽयं लोकोऽशाश्वतः अनित्यो विनाशीति गम्यते ॥७॥
टीकार्थ - जो स्वयं होता है-किसी दूसरे द्वारा उत्पन्न नहीं किया जाता अर्थात् जिसका अस्तित्त्व स्वयं निष्पन्न है वह स्वयंभू कहा जाता है, वह विष्णु है अथवा अन्य कोई । आदि में-शुरु में वे एक ही थे, रमणशील थे, उन्होंने दूसरे की अभिप्सा की, उनके चिन्तन के अनन्तर एक अन्य शक्ति उत्पन्न हुई उसके बाद इस सारे जगत की सृष्टि हुई । हमारे महर्षि ने ऐसा अभिहित किया है, इस प्रकार लोक की निष्पत्ति मानने वाले मतवादी लोक का सृष्टा स्वीकार करते हैं । फिर वे यों प्रतिपादित करते हैं कि स्वयंभू ने लोक को निष्पन्न किया तो सही किन्तु अत्यन्त भार के डर से-लोक उत्तरोत्तर बढ़ता ही ना जाय इस भय से जगत को मारने वाले मार-यमराज को उत्पन्न किया । यमराज ने माया की रचना की । उस माया से ही लोग मरते हैं । उपयोग लक्षणात्मक जीव का परमार्थतः-वास्तव में कभी व्यापत्ति-विनाश नहीं होता । इसलिये अमुक व्यक्ति मर गया यह केवल माया है । वास्तव में सत्य नहीं है । इस प्रकार यह लोक अशाश्वत, अनित्य और विनाशशील है, ऐसा प्रतीत होता है ।
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