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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् तमेव अवियाणंता, विसमंसि अकोविया । मच्छावेसालिया . चेव उदगस्सऽभियागमे ॥२॥ उदगस्स पभावेण, सुक्कं सिग्धंतर्मिति उ । ढंकेहि य कंकेहि य, आमिसत्थेहिं ते दुही ॥३॥ छाया - तमेवाविजानन्तो विषमे ऽकोविदाः ।
मत्स्याः वैशालिकाश्चैवोदकस्याभ्यागमे । उदकस्य प्रभावेण शुष्कं स्निग्धं तमेत्यतु ।
ढबैश्च कङ्कश्शामिषार्थिभिस्ते दुःखिनः ॥ अनुवाद - जो पुरुष-भिक्षु आधा कर्म आहार स्वीकार करने में क्या क्या दोष होते हैं नहीं जानते। चार गतियों के संबंध में जिन्हें कोई ज्ञान नहीं है, जो आठ प्रकार के कर्मों के स्वरूप समझने में अकोविदअयोग्य है और आधा कर्म आहार का सेवन करते हैं वे उन वैशालिक मत से-बड़ी बड़ी मछलियों या विशाल नामक, जाति वाली मछलियों की ज्यों दुःखित होते हैं जो पानी की बाढ़ आने पर-जल तरंगों के अत्यधिक उच्छलित होने पर, जल के बहाव के कारण शुष्क आर्द्र स्थान पर पहुंच जाती हैं जहां ढंक और कंक आदि मांस भक्षी जन्तु खाने को उद्यत रहते हैं।
टीका - इदानीमेतेषां सुखैषिणा माधाकर्मभोजिनां कटुकविपाकाविर्भावनाय श्लोकद्वयेन दृष्टान्तमाहतमेबाधाकर्मोपभोगदोषमजानानाःविषम अष्टप्रकार कर्मबन्धो भवकोटिभिरपि दुर्मोक्षःचतुर्गतिसंसारोवा तस्मिन्नकोविदाः कथमेष कर्मबन्धो भवति कथं वा न भवति, केनोपायेन संसारार्णवस्तीर्य्यत इत्यत्रा कुशला स्तस्मिन्नेव संसारोदरे कर्मपाशावपाशिताः दुःखिनो भवन्तीति । अत्र दृष्टान्तमाह-यथा मत्स्याः पृथुरोमाणो विशालः समुद्रस्तत्र भवाः वैशालिकाः विशालाख्यविशिष्टजात्युद्भवा वा वैशालिकाः विशाला एव वा वैशालिकाः वृहच्छरीरास्ते एवम्भूताः महामत्स्या उदकस्याभ्यागमे समुद्रवेला (या मागता) यां सत्यां प्रबलमरुद्वेगोद्भूतोतुङ्गकल्लोलमालापनुन्नाः सन्त उदकस्य प्रभावेन नदीमुखमागताः पुनर्वेलाऽपगमे तस्मिन्नुदके शुष्के वेगेनैवागपते सति बृहत्वाच्छरीरस्य तस्मिन्नेव धुनीमुखे विलग्ना अवसीदंत आमिषगृनुभिङ्गैः ककैश्च पक्षिविशेषै रन्यैश्च मांसवसार्थिभिर्मत्स्यबन्धादिभि जीवन्त एव विलुप्यमानाःमहान्तं दुःखसमुद्धातमनुभवन्तोऽशरणा: घातं विनाशंयान्ति प्राप्नुवन्ति । तुरवधारणे,त्राणाभावाद्विनाशमेव यान्तीति श्लोकद्वयार्थः ॥२॥३॥ ____टीकार्थ - इस समय उन पुरुषों का शास्त्रकार दो गाथों में प्रस्तुत दृष्टान्त द्वारा निरूपण करते हैंजो सुखैषी है-सुख चाहते हैं । आधा कर्म आहार का सेवन करते हैं और उसका कटुविपाक या कडवा फल प्राप्त करते हैं -
आधाकर्म आहार के सेवन से क्या दोष होते हैं, जो यह नहीं जानते, वे करोड़ों भवों में भी जिनसे छुटकारा पाना कठिन है, ऐसे आठ प्रकार के कर्मबन्धन को भी जानने में असमर्थ होते हैं । चार गतियों से मुक्त संसार का स्वरूप वे नहीं जानते, कर्मबन्ध किस प्रकार होता है, किस प्रकार नहीं होता तथा इस संसार रूपी समुद्र को किस प्रकार लांघा जाता है, यह जिन्हें ज्ञान नहीं है, वे कर्मों के फंदे में फंसे हुए संसार रूपी
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