________________
स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
का निरूपण हुआ है । इस उद्देशक में भी वैसा ही होगा अथवा पूर्ववर्ती दो उद्देशकों में कुदृष्टि-मिथ्यादृष्टिवादियों का प्रतिपादन किया गया है। उनके दोषों का दिग्दर्शन कराया गया है। अब यहां इस उद्देशक में उनके आचारगत दोष प्रदर्शित किये जा रहे हैं । इस संबंध से प्रस्तुत इस उद्देशक के चार अनुयोग द्वारों को प्रतिपादित कर अस्खलित-बोलने में स्खलना न करना, न अटकना आदि गुणों के सात सूत्र का उच्चारण करना चाहिये । वह सूत्र इस प्रकार है- उसका अभिप्राय इस प्रकार है
इस सूत्र का अनन्तर - पिछले सूत्र के साथ संबंध यह है । पिछले उद्देशक के अन्तिम सूत्र में एवं तु समणाएंगे' ऐसा कहा गया है, उस कथन का संबंध यहां भी होता है । इसलिये इसका अभिप्राय यह हुआ कि कोई श्रमण जो थोड़ा भी पूतिकृत - अपवित्र - अशुद्ध आहार का सेवन करते हैं वे संसार में पर्यटन करते हैं, भटकते हैं। परम्परित सूत्र से 'बुज्झिज्झ' इत्यादि कहा गया है जिसका तात्पर्य है मनुष्य को बोध प्राप्त करना चाहिये । अतः जो आहार स्वल्प रूप में आधा कर्मी आदि दोषों से युक्त है । श्रमण को चाहिये कि वह इसका बोध प्राप्त करे । उसके संबंध में सही जानकारी हासिल करे। यह संबंध यहां जोड़ना चाहिये । इसी प्रकार अन्य सूत्रों के साथ भी इस सूत्र का संबंध स्वयं अवगत कर लेना चाहिये । अब उस सूत्र का तात्पर्य प्रकट किया जाता है - जिस आहार में आधा कर्म आदि दोष बहुलतया प्राप्य हो उसकी तो बात ही क्या जो आहार दोष युक्त आहार की एक कणिका से भी युक्त हो एवं किसी श्रद्धाशील गृहस्थ ने मुनियों के भिक्षार्थ आने की संभावना मानते हुए उनके निमित्त बनाया हो । स्वयं चाहे उसने नहीं पकाया हो फिर भी वैसे आहार को जो मुनि एक सहस्र घरों का अन्तर रखते हुए भी ग्रहण करता है-र - खाता है, वह गृहस्थ एवं साधु दोनों के पक्षों का सेवन करता है । तात्पर्य यह है कि जो आहार आगन्तुक श्रमणों के लिये श्रद्धावान गृहस्थ ने तैयार किया हो। उस आहार की एक कणिका से भी युक्त आहार कोई श्रमण एक सहस्र घरों का अन्तर देकर भी यदि खाता है तो वह साधु एवं गृहस्थ दोनों पक्षों का सेवन करता है। ऐसी स्थिति में उन बौद्ध परम्परा के भिक्षुओं तथा अन्य परम्पराओं के श्रमणों-तापसों की तो बात ही क्या ? उनके लिये तो कहा ही क्या जाय ? वे तो स्वयं सम्पूर्ण आहार तैयार करवाते हैं और उसका सेवन करते हैं। वे तो साधु और गृहस्थ दोनों के पक्षों का सर्वथा सेवन करते हैं ।
अथवा द्विपद की व्याख्या यों भी की जाती है-ईर्यापथ तथा साम्परायिक द्विपद-दो पक्ष हैं अथवा इसे यों समझा जाय, पहले कहे गये पूतिकृत - अशुद्ध या सदोष आहार का सेवन करने वाला पुरुष पहले बांधी हुई, कर्म प्रकृतियों को निकाचित आदि अवस्थाओं में परिणत करता है तथा पुनः नूतन कर्म प्रकृतियां बांधता
1
आगम में 'आहाकम्मं' आधा कर्म इत्यादि के विषय में कहा गया है जो इस प्रकार है- हे भगवन ! जो श्रमण आधा कर्म आहार का सेवन करता है वह कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध करता है। यह प्रश्न गणधर गौतम ने प्रभु महावीर से किया । भगवान महावीर ने उत्तर दिया “गौतम ! वह श्रमण आठ कर्म प्रकृतियों का बंध करता है, वह शिथिल बन्धन में बंधे हुए कर्मों को सघन - दृढ़ बंधन में परिणत करता है, वह कर्मों का चय और उपचय करता है जो प्रकृति हस्व स्थिति युक्त है उसे दीर्घ स्थितियुक्त बनाता है अर्थात् जिन कर्मों की स्थिति स्वल्प होती है उन्हें विस्तीर्ण करता है। इसके अनुसार जो सांख्य भिक्षु आदि परतीर्थि एवं स्वयूथिकजन साधु एवं गृहस्थ दोनों के पक्षों का सेवन करते हैं ।
93