________________
स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
संसारपापकांक्षिणो मोक्षाभिलाषुकाः अपि सन्तस्ते चतुर्विधकर्मचयानभ्युपगमेनाऽनिपुणत्वाच्छासनस्य संसारमेव चतुर्गतिसंसरणरूपमनुपर्य्यन्ति भूयो भूयस्तत्रैव जन्मजरामरणदौर्गत्यादिक्लेशमनुभवन्तोऽनन्तमपि कालमासते न विवक्षित मोक्षसुखमाप्नुवन्ति इति व्रवीभीति पूर्ववदिति ॥३२॥ इति सूत्र कृताङ्गे समयाख्याध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः
›
समाप्तः ।
- इस दृष्टान्त को विवेचनीय तत्त्व के साथ योजित करने हेतु आगमकार कहते हैं जिस प्रकार एक अंधा पुरुष छिद्रयुक्त नौका पर समारूढ़ होकर चढ़कर नदी पार करना चाहता है किन्तु वह वैसा करने में असमर्थ रहता है, इसी प्रकार जिनका दृष्टिकोण सत् तत्त्व के विपरीत असम्यक् या मिथ्या होता है जो मांसाहार का समर्थन करते हैं । ऐसे अनार्य आर्यगुण रहित, उत्तम शील आचार आदि से वर्जित बौद्ध परम्परा के भिक्षु अपनी मान्यताओं में आसक्त रहतेहुए संसार को पार करना चाहते हैं-जन्म मरण से छूटकर मोक्ष कासुख प्राप्त करना चाहते हैं परन्तु जैसा पहले वर्णित हुआ है, उनके मन्तव्य में चार प्राकर के कर्मबन्ध को स्वीकार नहीं किया जाता, ऐसा होने के कारण- - ऐसा प्रतिपादित करने के कारण वे संसार को पार करने में आवागमन के चक्र से निकलने में सक्षम नहीं होते वे चार गतियों से युक्त संसार में भटकते रहते हैं। वे पुनः पुनः- इस जगत में जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु तथा दुर्गति आदि कष्टों को भोगते हुए अनन्तकाल पर्यन्त संसार में पर्यटन करते रहते हैं । विवक्षित-अभीप्सित, मोक्ष का सुख प्राप्त नहीं कर सकते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ यह पूर्ववत् समझना चाहिये ।
सूत्रकृताङ्ग सूत्र के समयाख्य- समय नामक प्रथम
अध्ययन का द्वितीय उद्देशक
समाप्त हुआ ।
编
91
❀❀❀