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। श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् । ऐसी मान्यता के साथ वे विपरीत-धर्मविरुद्ध अनुष्ठान-कार्य करते हैं, यों वे पाप कर्म का सेवन करते हैं-पापवद्ध होते हैं, वे इस प्रकार व्रतधारी होते हुए भी अपने दृष्टिकोण के अनुसार तथा कथित व्रतों का पालन करते हुए भी प्राकृत-साधारण या सामान्य मनुष्यों के सदृश ही हैं ।
जहा अस्साविणिं णावं, जाइअंधो दुरुहिया ।
इच्छई पारमागंतुं अंतरा य विसीयई ॥३१॥ छाया - यथा आस्ताविणी नावं जात्यन्धोदुरुह्य ।
इच्छति पारमागन्तु मन्तरा च विषीदति ॥ अनुवाद - जन्म से ही अंधा पुरुष एक ऐसी नाव पर चढ़कर, जो छिद्रयुक्त है, जिसमें पानी चू चू कर आ रहा है, नदी को पार करना चाहता है परन्तु उस नौका द्वारा वह उसे पार नहीं कर सकता । बीच में ही पानी में डूब जाता है और मर जाता है।
टीका - अस्यैवार्थस्योपदर्शकं दृष्टान्तमाह - आ-सामन्तात्स्रवति तच्छीला वा आस्राविणी सच्छिद्रेत्यर्थः, तां तथाभूतांनावं यथा जात्यन्धःसमारुह्यः पारंतटमागन्तुं प्राप्तुमिच्छत्यसौ, तस्याश्चस्राविणीत्वेनोदकप्लुतत्वाद् अन्तराले जलमध्ये एव विषीदति वारिणि निमज्जति तत्रैव च पञ्चत्वमुपयातीति ॥३१॥
टीकार्थ – इस आशय का स्पष्टीकरण करने हेतु आगमकार दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं-जिस नौका में चारों ओर से जल चू चू कर आ रहा हो, इसे आस्राविणी नौका कहा जाता है । आस्राविणी का अर्थ सछिद्रछिद्रो से युक्त है । ऐसी नौका पर आरूढ़ होकर एक जन्म से अंधा व्यक्ति नदी को लांघना चाहता है किन्तु नौका के छिद्रयुक्त होने के कारण नौका में चू चू कर जल आते रहने के कारण वह जल से आपूर्ण हो जाती है और वह पुरुष जल के मध्य में ही निमग्न हो जाता है-डूब जाता है और पंचत्व को प्राप्त हो जाता हैमर जाता है।
एवं तु समणा एगे, मिच्छ दिट्ठी अणारिया ।
संसारपारकंखी ते, संसार अणु परियटृति ॥३२॥ छाया - एवन्तु श्रमणा एके मिथ्यादृष्टयोऽनाऱ्याः ।
संसार पारकांक्षिणस्ते संसार मनुपर्यटन्ति ॥ अनुवाद - इसी तरह कई ऐसे तथाकथित श्रमण, जिनका दृष्टिकोण असम्यक् होता है, जो अनार्य उत्तम कर्म विवर्जित होते हैं, वे अपने वैसे दृष्टिकोण और आचार के लिए संसार सागर को पार करना चाहते है किन्तु वे पार नहीं कर सकते, उसमें भटकते रहते हैं ।
टीका - साम्प्रतं दाटन्तिकयोजनार्थमाह - एवमिति यथाऽन्धः सच्छिद्रां नावं समारूढ़ः पारगमनाय नालं तथा श्रमणा एके शाक्यादयो मिथ्या विपरीता दृष्टियेषान्ते मिथ्यादृष्टयस्तथा पिशिताशनानुमतेरना-:स्वदर्शनानुरागेण
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