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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् जिस प्रकार पिंजरे में बंधा हुआ पक्षी पिंजरे को तोड़ नहीं सकता-तोड़कर मुक्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार वे कर्मों के बंधन को तोड़ नही सकते ।
टीका - साम्प्रतमज्ञानादिनां ज्ञानवादी स्पष्टमेवानर्थाभिधित्साऽऽह - एवं पूर्वोक्तन्यायेन तर्कया स्वकीयविकल्पनया साधयन्तः प्रतिपादयन्तो धर्मे क्षान्त्यादिकेऽधर्मे च जीवोपमर्दापादिते अकोविदा अनिपुणाः दुःखमसातोदयलक्षणं तद्धेतुं वा मिथ्यात्वाद्युपचित कर्मबन्धनं नातित्रोटयन्ति । अतिशयेनैतद्व्यवस्थितं तथा ते न त्रोटयन्ति-अपनयन्तीति । अत्र दृष्टान्तमाह-यथा पंजरस्थः शकुनिः पंजरं त्रोटयितुं पज्जरबन्धनादात्मानं मोचयितुं नालमेवमसावपि संसारपंजरादात्मानं मोचयितुं नालमिति ॥२२॥ _____टीकार्थ - अब अज्ञानवादियों का सिद्धान्त अनर्थकारक है, यह स्पष्ट रूप में बताने के लिये ज्ञानवादी कहते हैं -
पूर्वोक्त न्याय के अनुसार अपनी मनगढन्त कल्पना द्वारा अज्ञानवादी अपने सिद्धान्तों को सिद्ध करते हैं । वे शांति-क्षमाशीलता आदि सिद्धान्तों से युक्त धर्म को तथा प्राणियों की हिंसा से होने वाले पाप को जानने में अकोविद-अनिपुण या असमर्थ है, वे मिथ्यात्व आदि द्वारा होने वाले कर्म बंध को-बंधने वाले कर्मों को तोड़ नहीं सकते । जो दुःख तथा असाता-प्रतिकूल वेदनीय के हेतु हैं । यह सर्वथा निश्चित है कि वे कर्मबंध को तोड़ने में सक्षम नहीं होते । प्रस्तुत विषय को आगमकार दृष्टान्त द्वारा निरूपित करतेहैं-जैसे पिंजरे में स्थित पक्षी उसे तोड़कर पिंजरे के बंधन से अपने को छुड़ाने में सक्षम नहीं होता उसी प्रकार अज्ञानवादी संसारजन्म मरण या आवागमन के पिंजरे से अपने को छुड़ाने में समर्थ नहीं होता।
सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं ।
जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया ॥२३॥ छाया - स्वकं स्वकं प्रशंसन्तो गर्हयंतः परं वचः ।
___ ये तु तत्र विद्वस्यन्ते संसारन्ते व्युच्छ्रिता ॥ अनुवाद - अन्यतीर्थि-जैनेत्तर सिद्धान्तवादी अपने अपने सिद्धान्तों की प्रशस्ति करते हैं, उन्हें उत्तम बतलाते हैं तथा औरों के वचन वाद या सिद्धान्तों की निन्दा करते हैं, उन्हें अप्रशस्त बतलाते हैं । ऐसा करने में जो अपने वैदूष्य-पांडित्य का प्रदर्शन करते हैं । वे संसार के गाढ़े बन्धन में बंधे हुए या जकड़े हुए हैं ।
टीका - अधुना सामान्येनैकान्तवादिमतदूषणार्थमाह - स्वकं स्वकमात्मीयमात्मीयं दर्शनमभ्युपगतं प्रशंसन्तो वर्णयन्तः समर्थयन्तो वा, तथा गहमाणाः निन्दन्त परकीयां वाचं, तथा हि-साङ्ख्याः सर्वस्याविर्भावतिरोभाव वादिनः सर्वं वस्तु क्षणिकं निरन्वयविनश्वरं चेत्येवंवादिनो बौद्धान् दूषयन्ति तेऽपि नित्यस्य क्रमयोगपद्याभ्यामर्थ क्रियाविरहात् साङ्ख्यान्, एव मन्येऽपि द्रष्टव्या इति । तदेवं 'ये' एकान्तवादिनः तुरवधारणे भिन्नक्रमश्च, तत्रैव तेष्वेवाऽत्मीयात्मीयेषु दर्शनेषु प्रशंसांकुर्वाणाः परवाचञ्च विगर्हमाणाः विद्वस्यन्ते विद्वांस इवाऽऽचरन्ति तेषु वा विशेषेणोशन्ति-स्वशास्त्रविषये विशिष्टं युक्तिवातं वदन्ति, ते चैवं वादिनः संसारं चतुर्गतिभेदेन संसृति रूपं विविधम् अनेकप्रकारम् उत् प्रावल्येन श्रिताः सम्बद्धाः, तत्र वा संसारे उषिताः संसारान्तर्वर्तिनः सर्वदा भवन्तीत्यर्थः ॥२३॥
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