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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् इस गाथा में 'आवजे'-आपद्येरन् पद आया है । वह लिंग लकार में है, संभावना के अर्थ में है, इसके द्वारा आगमकार यह दिग्दर्शन करते हैं कि उन आजीवन मतवादियों के लिये एक अन्य प्रकार का अनर्थविपरीत कार्य भी संभावित है । कहने का अभिप्राय यह है कि वे इष्ट-अभीप्सित या चाहे हुए अर्थ को नहीं पाते । उसके प्रतिकूल-विपरीत उल्टे पापमूलक अनर्थ को पाते हैं । इस प्रकार असत् का अनुष्ठान-आचरण करने वाले, अज्ञान ही कल्याण का मार्ग है, ऐसा प्रतिपादन करने वाले गौशालक के नियतिवाद में विश्वास रखने वाले आजीवक आदि संयम के पद को नहीं पा सकते । सद्धर्म का अनुसरण नहीं कर सकते और न मोक्ष आदि के पथ पर आगे बढ़ने के लिये, जो सर्वथा सीधा है, प्रयत्न ही कर सकते हैं । अथवा इसे यों समझा जाना चाहिये-जो अज्ञान के कारण आन्तरिक ज्योति से विहीन हैं, अन्धवत् हैं, ज्ञान को मिथ्या या असत्य बताते हैं । सत्य को नहीं अपना सकते, उसमें अपना जीवन नहीं ढ़ाल सकते जो मोक्ष को स्वायत करने कापाने का सबसे सीधा रास्ता है । ये अज्ञानवादी अज्ञान को कल्याण या श्रेयस् का मार्ग बताते हैं । उनके ६७ भेद कहे गये हैं उन भेदों को इस प्रकार सत्, असत्, सदसत्, अवक्तव्य, सद्अवक्तव्य, असद्अवक्तव्य, सद्असद्अवक्तव्य इस प्रकार समझना चाहिए । जीव आदि पदार्थ इन विकल्पों द्वारा नहीं जाने जा सकते और उनको जानने से कोई प्रयोजन भी सिद्ध नहीं हो सकता । इनकी संगति यों करनी चाहिये-जीव सत् है यह कौन जानता है, वैसा ज्ञात करने से क्या लाभ है,उसका क्या परिणाम निकलता है । जीव असत् है, इसे कौन जानता है, उसे जानने का क्या प्रयोजन है । इसी प्रकार सदअसद आदि भेदों के विकल्पों की भी जीव के साथ संगति करनी चाहिये । इसी प्रकार अजीव आदि पदार्थों में भी प्रत्येक के साथ इन विकल्पों की संगति करनी चाहिये । दो नव + सप्तक मिलकर अज्ञान के ६३ भेद होते हैं । इन ६३ भेदों में चार भेदों को और जोड़ा जाना चाहिये- (१) भाव की उत्पत्ति सत् अस्तित्व से होती है यह कौन जानता है, इसके जानने का क्या प्रयोजन है-फल है । (२) भाव की उत्पत्ति असत् से होती है, यह किसे ज्ञात है अथवा इसे ज्ञात करने का क्या प्रयोजन है-क्या परिणाम निकलता है । (३) सदसत् से भाव की उत्पत्ति होती है, इसे कौन ज्ञात करता है, ज्ञात करने से क्या फल है-क्या परिणाम निकलता है । (४) भाव की उत्पत्ति अवक्तव्य से होती है, यह कौन ज्ञात करता है, ज्ञात करने से क्या परिणाम आता है ।
ऊपर जो सात विकल्प वर्णित हुए हैं इनमें से चार विकल्पों को यहां भाव उत्पत्ति के विषय में अभिहित किया गयाहै । बाकी के तीन विकल्पों की चर्चा नहीं की गई है क्योंकि वे तीन विकल्प पदार्थ के उत्पन्न हो जाने के अनन्तर अवयवों की अपेक्षा से लागू होते हैं । भावोत्पत्ति-भावों की उत्पत्ति के विषय में यह संभव नहीं है।
उपर्युक्त सात विकल्पों में जीव सत् है यह कौन जानता है । यह पहला विकल्प है । इसका अभिप्राय यह है कि जगत में किसी भी प्राणी को ऐसा विशिष्ट ज्ञान नहीं होता । जो अतीन्द्रिय-इन्द्रियातीत जिसे इन्द्रियों से ग्रहण न किया जा सके, ऐसे जीवों एवं अन्य पदार्थों को ज्ञात कर सके, उन्हें ज्ञात करने से कोई प्रयोजन भी सिद्ध नहीं होता क्योंकि जीव चाहे नित्य, सर्वगत-सर्वव्यापि, अमूर्त-आकार रहित तथा ज्ञान आदि गुणों से मुक्त हो या इसके विपरीत-प्रतिकूल हो, उसे किसी प्रकार का प्रयोजन या अर्थ सिद्ध नहीं हो सकता । इसलिये वास्तव में अज्ञान ही श्रेयस्कर कल्याणकारी है ।
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