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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् । निश्चयेन गच्छतःप्राप्तुतः अज्ञानावृतत्वादेवं तेऽप्यज्ञानवादिन आत्मीयं मार्गशोभनत्वेन निर्धारयन्तः परकीयञ्चाशोभनत्वेन जानानाः स्वयं मूढाः सन्तः परानपि मोहयन्तीति ॥१८॥
___टीकार्थ - अज्ञानवादी न तो अपने आपको तथा न दूसरे को ही अपने सिद्धान्तों के संदर्भ में समाधान दे पाने में सक्षम हो सकते हैं । आगमकार एक दृष्टान्त द्वारा इस तथ्य का उपपादान करते हैं -
जैसे वन में कोई मूढ़-दिग्भ्रान्त प्राणी दिशाओं का ज्ञान करने में असमर्थ रहताहै और वह किसी अन्य दिग्भ्रान्त प्राणी का अनुसरण करता है-उसके पीछे पीछे चलता है तब वे दोनों ही प्राणी जो मार्ग को भली भांति जानने में कोविद-निपुण या चतुर नहीं है, वे तीव्र असह्य दुःख को प्राप्त करते हैं अथवा वे घोर जंगल में खो जाते हैं क्योंकि वे अज्ञान से आवृत्त-ढ़के हुए हैं उनका ज्ञान अनावृत्त है । इसी प्रकार वे अज्ञानवादी जो अपने मार्ग को-अपनी सैद्धान्तिक मान्यताओं को शोभन-उत्तम सत्य तथा दूसरे के मार्ग को-सिद्धान्तों को अशोभन-अनुत्तम, असत्य समझते हैं वे स्वयं मूढ़ हैं-मोहग्रस्त हैं और अन्य को मोहग्रस्त बनाते हैं।
अंधो अंधं पहं णितो, दूरमद्धाणुगच्छइ ।
आवजे उप्पहं जंतू, अदुवा पंथाणुगामिए ॥१९॥ छाया - अन्धोऽन्धं पन्थानं नयन् दूरमध्वान मनुगच्छति ।
· आपद्यत उत्पथं जन्तुरथवापन्थानमनुगामिकः ॥ अनुवाद - एक नेत्रहीन पुरुष मार्ग में चल रहा है, दूसरे नेत्रहीन को अपने पीछे लिये जा रहा है। ऐसा करता हुआ वह जहाँ जाना है, वहाँ से दूर निकल जाता है अथवा उत्पथ-उल्टे-रास्ते पर चला जाता है, अथवा किसी और ही रास्ते को पकड़ लेता है ।।
____टीका - अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तरमाह- यथाऽन्धः स्वयमपरमन्धं पन्थानं नयन दूरमध्वानं विवक्षितादध्वनः परतरं गच्छति, तथोत्पथमापद्यते जन्तुरन्धः । अथवा परं पन्था नमनुगच्छेत्, न विवक्षितमेवाध्वानमनुयायादिति ॥१९॥
टीकार्थ - शास्त्रकार इसी विषय पर एक दृष्टान्त उपस्थित करते हैं -
जैसे एक अंधा पुरुष स्वयं दूसरे अंधे पुरुष को मार्ग में ले जाता हुआ अपने विवक्षित-अभिप्सितजिससे जाना उपयुक्त है, उससे दूर निकल जाता है । उत्पथ-उससे भिन्न या उल्टे रास्ते पर चल पड़ता है अथवा किसी दूसरे रास्ते को अपना लेता है किन्तु जिस रास्ते से जाना है, उस रास्ते पर नहीं जाता ।
एवमेगे णियायट्ठी, धम्ममाराहगा वयं ।
अदुवा अहम्ममावजे ण ते सव्वज्जुयं वए ॥२०॥ छाया - एवमेके नियागार्थिनो धर्माराधकाः वयम् । अथवाऽधर्ममापोरन् न ते सर्वर्जुकं व्रजेयुः ॥
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