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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् ज्ञान की अभिवृद्धि होती है त्यों त्यों दोष की गुरुता भी बढ़ती जाती है अर्थात् ज्ञानी द्वारा जो जानता है, यदि कोई दोष किया जाता है तो उसे भारी माना जाता है । जो व्यक्ति जान बूझकर दूसरों के मस्तक को अपने पैर से छूता है-उस पर पैर रख देता है तो उसका यह करना भारी अपराध माना जाता है । इसके विपरीत अज्ञान के कारण या भूल से किसी अन्य पुरुष के मस्तक का पैर से स्पर्श कर देता है, उसके सिर के पैर लगा देता हैं, तो उसके अज्ञान के कारण वैसा करना कोई दोष नहीं माना जाता । अतः अज्ञान ही जीवन का मुख्य भाव है-आधार है, ज्ञान नहीं, अज्ञान वादी ऐसा कहते हैं।
अन्नाणियाणं वीमंसा, अण्णाणे ण विनियच्छइ ।
अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासिउं ॥१७॥ छाया - अज्ञानिकानां विमर्शः, अज्ञाने न विनियच्छति ।
आत्मनश्च परं नालं कुतोऽन्याननुशासितुम् ॥ - अनुवाद - अज्ञानवादियों की यह मीमांसा-आलोचनात्मक प्रतिपादन कि अज्ञान ही सर्वोत्तम है। यह अज्ञान के पक्ष में युक्ति युक्त सिद्ध नहीं होती है । वे अज्ञानवादी अपने इस सिद्धान्त से अपने आपको समझाने में भी-अपने को समाधान देने में भी सक्षम नहीं है-इससे उनका अपना समाधान भी नहीं सध पाता । फिर वे अन्य को किस प्रकार समाधान दे सकते हैं।
टीका - एवमज्ञान वादिमतमनूचेदानीं तद्रूषणायाह - न ज्ञानमज्ञानं तद्विद्यते येषान्तेऽज्ञानिनः । अज्ञान शब्दस्य संज्ञा शब्दत्वाद्वा मत्वर्थीयः गौरखरवदरण्यमिति यथा । तेषामज्ञानिनामज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वादिनां, योऽयं विमर्शः पालोचनात्मको मीमांसा वा मातुं परिच्छेत्तुमिच्छा सा अज्ञाने अज्ञान विषये न 'णियच्छति' न निश्चयेन यच्छति-नावतरति, न युज्यत इति यावत् तथाहि-यैवंभूता मीमांसा विमर्शो वा किमेतज्ज्ञानं सत्यमुतासत्यमिति ? "यथा अज्ञान मेव श्रेयो, यथा यथा च ज्ञानातिशय स्तथा तथा च दोषातिरेक इति" सोऽयमेवंभूतो विमर्शस्तेषां न युज्यते, एवंभूतस्य पर्सालोचनस्य ज्ञानरूपत्वादिति । अपि च-तेऽज्ञानवादिन आत्मनोऽपि परं प्रधानमज्ञानवादमिति शासितुमुपदेष्टुं नालं न समर्थाः तेषामज्ञानपक्षसमाश्रयणेनाज्ञत्वादिति, कुतः पुनस्ते स्वयमज्ञाः सन्तोऽन्येषां शिष्यत्वेनोपगतानामज्ञानवादमुपदेष्टुमलं समर्था भवेयुरिति ? यदप्युक्तम्-“छिन्नमूलत्वाम्लेच्छानुभाषणवत् सर्वमुपदेशादिकम्" तदप्ययुक्तं यतोऽनुभावणमपि न ज्ञानमृते कर्तुशक्यते । तथा यदप्युक्तं "पर चेतोवृत्तीनां दुरन्वयत्वादज्ञानमेव श्रेय इति तदप्यसत्, यतो भवतैवाज्ञानमेव श्रेय इत्येवं परोपदेशदानाभ्युद्यतेन परचेतोवृत्तिज्ञानस्याभ्युपगमः कृत इति । तथाऽन्यैरप्यभ्यधायि-"आकारैरिङ्गितैर्गत्या, चेष्टया भाषितेन च ।" नेत्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः" ॥१७॥
__टीकार्थ - यों अज्ञानवाद के सिद्धान्त का निरूपण कर आगमकार उसे सदोष साबित करते हुए कहते हैं-जो ज्ञान नहीं है, ज्ञान का अभाव है, उसे अज्ञान कहा जाता है । जिनको अज्ञान होता है वे अज्ञानी कहे जाते हैं अथवा अज्ञान शब्द व्याकरण के अनुसार 'संज्ञा' शब्द है । अतः ‘गौरवरवदरण्यं' के नियमानुसार इसमें 'मत्वर्थीय' प्रत्यय हुआ है । अज्ञान ही श्रेयस्कर है, उत्तम है, ऐसा निरूपण करने वाले अज्ञानवादी जो यह पर्यालोचनात्मक-विश्लेषणात्मक मीमांसा-चिन्तनपूर्ण विचार प्रस्तुत करते हैं । जो पदार्थ का निश्चय करने या
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