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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः उन का निश्चित स्वरूप उपस्थित करने की इच्छा करते हैं, वस्तुत: उनका वह पर्यालोचनात्मक विश्लेषण युक्तियुक्त सिद्ध नहीं होता । अमुक ज्ञान सत्य है अथवा वह असत्य है । उनका ऐसा आलोचनात्मक चिंतन तथा अज्ञान ही श्रेष्ठ है ऐसी विचारणा और ज्यों ज्यों ज्ञान की अभिवृद्धि होती है त्यों त्यों दोष की भी अभिवृद्धि होती है, ऐसा मानना समुचित नहीं है क्योंकि इस प्रकार जो आलोचनात्मक विचार किया जाता है वह भी तो ज्ञानात्मक ही है जिसके आधार पर वह चिंतन आगे बढ़ता है । ऐसी स्थिति में वे अज्ञानवादी अपने द्वारा सर्वोत्तम माने हुए अज्ञानवाद से अपने आपका भी समाधान नहीं कर सकते । यों जब वे स्वयं समाधान नहीं कर पाते तो नि:संदेह वे अज्ञानी हैं तब उनके समीप आकर उनका शिष्यत्व स्वीकार कर जो उनसे ज्ञान पाना चाहते हैंसैद्धान्तिक शिक्षा पाना चाहते हैं वे उन्हें किस प्रकार शिक्षा दे सकते हैं - उनका समाधान कर सकते हैं । जैसा कि कहा गया है-वे स्वयं ही असमाहित हैं-समाधान रहित हैं । अज्ञानवादियों द्वारा ऐसा भी कहा गया है कि सब उपदेश-सैद्धान्तिक शिक्षा आदि उसी प्रकार निराधार है, जिस प्रकार एक म्लेच्छ द्वारा किया गया आर्य भाषा का अनुवाद-अनुसरण या अनुवचन यह बात अयुक्तियुक्त है क्योंकि किसी दूसरे की भाषा का अनुवाद भी ज्ञान के न होने पर नहीं किया जा सकता.अज्ञानवादी ने जो एक यह बात भी कही कि किसी अन्य की चित्तवृत्ति को जान पाना दुष्कर है-संभव नहीं है । अतएव अज्ञान ही उत्तम है यह कथन भी तर्क एवं युक्ति रहित है क्योंकि जब आप यह कहते हैं कि अज्ञान ही उत्तम है, यह औरों को उपदेश देने हेतु जब आप प्रवृत्त होते हैं तो स्वयं दूसरे की चित्तवृत्ति का ज्ञान होता है ऐसा स्वीकार करना होगा । यदि अन्य की चित्तवृत्ति
ता तो फिर आपके शिष्य जो आपके पास ज्ञान लेना चाहते हैं-उपदेश लेना चाहते हैं, वे आपकी चित्तवृत्ति को कैसे जान सकते हैं, वे आपके विचार एवं चिन्तन को कैसे आत्मसात कर सकते हैं। फिर आप उनको अज्ञानवाद के सिद्धान्त का उपदेश क्यों देते हैं । दूसरे मतवादी या दार्शनिक भी यह स्वीकार करते हैं कि किसी अन्य की चित्तवृत्ति को जाना जा सकता है समझा जाता है, यह स्पष्ट उदाहरण है-किसी मनुष्य के आकार से, संकेत से, गति से, चेष्ठा-क्रिया से, भाषण से, आँख, मुँह आदि के विकार या परिवर्तित रूप से उनका अन्तरमन समझा जा सकता है ।
वणे मूढे जहा जन्तू, मूढे णेयाणुगामिए ।
दोवि एए अकोविया, तिव्वं सोयं नियच्छइ ॥१८॥ छाया - वने मूढ़ो यथा जन्तु मूंढनेत्रनुगामिकः ।
____ द्वावप्येतावकोविदौ तीव्र शोकं नियच्छतः ॥ अनुवाद - जंगल में एक दिक्मूढ-जिसे दिग्भ्रम हो गया है, जो पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशाओं को ठीक ठीक नहीं पहचान पा रहा है-चला जा रहा है यदि दूसरा दिग्भ्रान्त प्राणी उसके पीछे-पीछे चलता है तो वे दोनों ही दिग्भ्रम के कारण घोर दुःख प्राप्त करते हैं-अत्यन्त दुःखित होते हैं ।
टीका - तदेवं ते तपस्विनोऽज्ञानिन आत्मनः परेषाञ्च शासने कर्तव्ये यथा न समर्थास्तथा दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह -
वनेऽटव्यां यथा कश्चिन्मूढो जन्तुः प्राणी दिक्परिच्छेदं कर्तुमसमर्थः स एवंभूतो यदा परं मूढमेव नेतारमनुगच्छति तदा द्वावप्यकोविदौ सम्यग् ज्ञानानिपुणौ सन्तौ तीव्रमसह्यं स्रोतो गहन शोकं वा नियच्छतो
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